गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 86

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौथा अध्याय

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जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत: ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥9॥

हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। इस प्रकार (मेरे जन्म और कर्म को) जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है अर्थात दृढ़ता पूर्वक मान लेता है, वह शरीर का त्याग करके पुनर्जन्म हो प्राप्त नहीं होता, प्रत्युत मुझे प्राप्त होता है।

व्याख्या- अवतारकाल में भगवान् मनुष्यों के कल्याण के लिये ही सब क्रियाएँ करते हैं। जन्म और कर्म से सर्वथा रहित होने पर भी भगवान् अपनी प्रकृति की सहायता से जन्म और कर्म की लीला करते हुए दीखते हैं- यह भगवान् के जन्म और कर्म की अलौकिकता है। साधक भी यदि अपरा प्रकृति के अहम के साथ अपने तादात्म्य का त्याग कर दे तो कर्तृत्व-भोक्तृत्व से रहित होने पर उसके कर्म भी दिव्य हो जायँगे। कर्मों का अकर्म होना ही कर्मों का दिव्य होना है। यह दिव्यता कर्मयोग से आती है।

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिता: ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागता: ॥10॥

राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित, मुझ में तल्लीन, मेरे ही आश्रित तथा ज्ञानरूप तप से पवित्र हुए बहुत-से भक्त मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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