गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
चौथा अध्याय
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत: । व्याख्या- अवतारकाल में भगवान् मनुष्यों के कल्याण के लिये ही सब क्रियाएँ करते हैं। जन्म और कर्म से सर्वथा रहित होने पर भी भगवान् अपनी प्रकृति की सहायता से जन्म और कर्म की लीला करते हुए दीखते हैं- यह भगवान् के जन्म और कर्म की अलौकिकता है। साधक भी यदि अपरा प्रकृति के अहम के साथ अपने तादात्म्य का त्याग कर दे तो कर्तृत्व-भोक्तृत्व से रहित होने पर उसके कर्म भी दिव्य हो जायँगे। कर्मों का अकर्म होना ही कर्मों का दिव्य होना है। यह दिव्यता कर्मयोग से आती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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