गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 90

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौथा अध्याय

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कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण: ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति: ॥17॥

कर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये और अकर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये तथा विकर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्मों की गति गहन है अर्थात् समझने में बड़ी कठिन है।

व्याख्या- कामना के कारण क्रिया ही फलजनक ‘कर्म’ बन जाती है। कामना बढ़ने पर (विकर्म’ (पाप) होते हैं। कामना का सर्वथा नाश होने पर सभी कर्म ‘अकर्म’ हो जाते हैं अर्थात फल देने वाले नहीं होते।

कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् ॥18॥

जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वह योगी है और सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला (कृतकृत्य) है।

व्याख्या- कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना अर्थात कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छा न रखना ‘कर्म में अकर्म’ देखना है। निर्लिप्त रहते हुए अर्थात कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छा का त्याग करके कर्म करना ‘अकर्म में कर्म’ देखना है। इन दोनों से ही कर्मयोग की सिद्धि होती है। कर्मयोगी कर्म करते हुए अथवा न करते हुए, प्रत्येक अवस्था में निर्लिप्त रहता है- ‘नैव तस्य कृतेनार्थों नाकृतेनेह कश्चन’[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 3।18)

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