गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 69

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तीसरा अध्याय

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कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय: ।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥20॥

राजा जनक- जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म (कर्मयोग) के द्वारा ही परम-सिद्धि को प्राप्त हुए थे। इसलिये लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू (निष्कामभाव से) कर्म करने के ही योग्य है अर्थात अवश्य करना चाहिये।

व्याख्या- जनकादि राजाओं ने भी कर्मयोग के द्वारा ही मुक्ति प्राप्त की थी। इससे सिद्ध होता है कि कर्मयोग मुक्ति का स्वतन्त्र साधन है।

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन: ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥21॥

श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, दूसरे मनुष्य उसी के अनुसार आचरण करते हैं।

व्याख्या- समाज में जिस मनुष्य को लोग श्रेष्ठ मानते हैं, उसपर विशेष जिम्मेवारी रहती है कि वह ऐसा कोई आचरण न करे तथा ऐसी कोई बात न कहे, जो लोक-मर्यादा तथा शास्त्र-मर्यादा के विरुद्ध हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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