गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
तीसरा अध्याय
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । व्याख्या- जैसे ‘करना’ प्रकृति के सम्बन्ध से है, ऐसे ही ‘न करना’ भी प्रकृति के सम्बन्ध से है। करना और न करना- दोनों सापेक्ष हैं; परन्तु तत्त्व निरपेक्ष है। इसलिये स्वयं (चिन्मय सत्तामात्र) का न तो करने के साथ सम्बन्ध है, न नहीं करने के साथ सम्बन्ध है। करना, न करना तथा पदार्थ- ये सब उसी सत्तामात्र से प्रकाशित होते हैं[1]। कर्मयोग से सिद्ध हुए महापुरुष में करने का राग तथा पाने की इच्छा सर्वथा नहीं रहती, इसलिये उसका न तो कुछ करने से मतलब रहता है, न कुछ नहीं करने से मतलब रहता है और न उसका किसी भी प्राणी-पदार्थ से कुछ पाने से ही मतलब रहता है। तात्पर्य है कि उसका प्रकृति विभाग से सर्वथा सम्बन्ध नहीं रहता। तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचार । व्याख्या- मनुष्य कर्मों से नहीं बँधता, प्रत्युत आसक्ति से बँधता है। आसक्ति ही मनुष्य का पतन करती है, कर्म नहीं। आसक्ति-रहित होकर दूसरों के हित के लिये कर्म करने से मनुष्य संसार-बन्धन से मुक्त होकर परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाता है। कर्म में परिश्रम और कर्मयोग में विश्राम है। शरीर की आवश्यकता परिश्रम में है, विश्वास में नहीं। कर्मयोग में शरीर से होने वाला परिश्रम (कर्म) दूसरों की सेवा के लिये और विश्राम (योग) अपने लिये है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 13।33)
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज