गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 68

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तीसरा अध्याय

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नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय: ॥18॥

उस (कर्मयोग से सिद्ध हुए महापुरुष) का इस संसार में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्म न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में (किसी भी प्राणी के साथ) इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता।

व्याख्या- जैसे ‘करना’ प्रकृति के सम्बन्ध से है, ऐसे ही ‘न करना’ भी प्रकृति के सम्बन्ध से है। करना और न करना- दोनों सापेक्ष हैं; परन्तु तत्त्व निरपेक्ष है। इसलिये स्वयं (चिन्मय सत्तामात्र) का न तो करने के साथ सम्बन्ध है, न नहीं करने के साथ सम्बन्ध है। करना, न करना तथा पदार्थ- ये सब उसी सत्तामात्र से प्रकाशित होते हैं[1]

कर्मयोग से सिद्ध हुए महापुरुष में करने का राग तथा पाने की इच्छा सर्वथा नहीं रहती, इसलिये उसका न तो कुछ करने से मतलब रहता है, न कुछ नहीं करने से मतलब रहता है और न उसका किसी भी प्राणी-पदार्थ से कुछ पाने से ही मतलब रहता है। तात्पर्य है कि उसका प्रकृति विभाग से सर्वथा सम्बन्ध नहीं रहता।

तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचार ।
असक्तो ह्यचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष: ॥19॥

इसलिये तू निरन्तर आसक्ति रहित होकर कर्तव्य कर्म का भलीभाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्ति रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या- मनुष्य कर्मों से नहीं बँधता, प्रत्युत आसक्ति से बँधता है। आसक्ति ही मनुष्य का पतन करती है, कर्म नहीं। आसक्ति-रहित होकर दूसरों के हित के लिये कर्म करने से मनुष्य संसार-बन्धन से मुक्त होकर परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाता है। कर्म में परिश्रम और कर्मयोग में विश्राम है। शरीर की आवश्यकता परिश्रम में है, विश्वास में नहीं। कर्मयोग में शरीर से होने वाला परिश्रम (कर्म) दूसरों की सेवा के लिये और विश्राम (योग) अपने लिये है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 13।33)

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