गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 67

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तीसरा अध्याय

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एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य: ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥16॥

हे पार्थ! जो मनुष्य इस लोक में इस प्रकार (परम्परा से) प्रचलित सृष्टि-चक्र के अनुसार नहीं चलता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में रमण करने वाला अघायु (पापमय जीवन बिताने वाला) मनुष्य संसार में व्यर्थ ही जीता है।

व्याख्या- जो मनुष्य लोक- मर्यादा तथा शास्त्र - मर्यादा के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, उसे संसार में जीने का अधिकार नहीं है। कारण कि मनुष्यों के द्वारा अपने कर्तव्य का पालन न करने से संसार मात्र को हानि पहुँचती है। वर्तमान में जो अन्न, जल, वायु आदि प्रदूषित हो रहे हैं, अकाल, अनावृष्टि आदि प्राकृतिक आपदाएँ आ रही हैं, उसमें मनुष्य का कर्तव्य-च्युत होना ही प्रधान कारण है।

अपने लिये कर्म करना अनधिकृत चेष्ठा है। कारण कि जो कुछ मिला है, वह सब संसार की सामग्री है। शरीरादि सब पदार्थ संसार के ही हैं, अपने नहीं। अतः हम पर संसार का ऋण है; जिसे उतारने के लिये हमें सब कर्म संसार के हित के लिये ही करने हैं।

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव: ।
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥17॥

परन्तु जो मनुष्य अपने-आप में ही रमण करने वाला और अपने-आप में ही तृप्त तथा अपने-आप में ही सन्तुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।

व्याख्या- जब तक परमात्मतत्त्व की प्राप्ति नहीं होती, तभी तक मनुष्य पर कर्तव्य-पालन की जिम्मेवारी रहती है। परमात्मतत्त्व की प्राप्ति होने पर महापुरुष के लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता। उसके संसार में रहने मात्र से संसार का हित होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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