गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 70

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तीसरा अध्याय

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न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकुषु किञ्चन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥22॥

हे पार्थ! मुझे तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्तव्य कर्म में ही लगा रहता हूँ।

व्याख्या- भगवान भी अवतारमाल में सदा कर्तव्य कर्म में लगे रहते हैं, इसलिये जो साधक फलेच्छा व आसक्ति-रहित होकर सदा कर्तव्य-कर्म में लगा रहता है, वह सुगमता पूर्वक भगवान को प्राप्त हो जाता है।

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित: ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ॥23॥

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा: ॥24॥

क्योंकि हे पार्थ! अगर मैं किसी समय सावधान हो कर कर्तव्य-कर्म न करूँ (तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि) मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं वर्णसंकरता को करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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