गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 401

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

अठारहवाँ अध्याय

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राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् ।
केशवार्जुनयो: पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहु: ॥76॥

हे राजन! भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस पवित्र और अद्भुत संवाद को याद कर-करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।

व्याख्या- भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस संवाद में जो तत्त्व भरा हुआ है, वह किसी ग्रन्थ, महात्मा आदि से सुनने को नहीं मिला। यह भगवान और उनके भक्त का बड़ा विलक्षण संवाद है। इतनी स्पष्ट बातें दूसरी जगह पढ़ने-सुनने को मिलती नहीं। इस संवाद में युद्ध- जैसे घोर कर्म से भी कल्याण होने की बात कही गयी है। प्रत्येक वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदि का मनुष्य प्रत्येक परिस्थिति में अपना कलयाण कर सकता है- यह बात इस संवाद से मिलती है। इसलिये यह संवाद बड़ा अद्भुत है। केवल संवाद में ही इतनी विलक्षणता है, फिर इसके अनुसार आचरण करने का तो कहना ही क्या है। ज्ञान-कर्मभक्ति की ऐसी विलक्षण बातें और जगह सुनने को मिली ही नहीं, इसलिये इनको सुनकर संजय बार-बार हर्षित हो रहे हैं।

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे: ।
विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुन: पुन: ॥77॥

हे राजन! भगवान श्रीकृष्ण के उस अत्यन्त अद्भुत विराटरूप को भी याद कर-करके मुझे बड़ा भारी आश्चर्य हो रहा है औ मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।

व्याख्या- भगवान के विषय में पहले तो संजय ने शास्त्र में पढ़ा, फिर अद्भुत संवाद सुना और फिर अति अद्भुत विराटरूप देखा। तात्पर्य है कि शास्त्र की अपेक्षा श्री कृष्णार्जुन- संवाद अद्भुत था और संवाद की अपेक्षा भी विराटरूप अत्यन्त अद्भुत था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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