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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
अठारहवाँ अध्याय
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: । संजय कहते हैं कि राजन! जहाँ अर्जुन का संरक्षण करन वाले, उन्हें सम्मति देने वाले, सम्पूर्ण योगों के महान ईश्वर, महान बलशाली, महान ऐश्वर्यवान् महान् विद्यावान, महान चतुर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ भगवान की आज्ञा का पालन करन वाले, भगवान के प्रिय सखा तथा शरणागत भक्त गाण्डीव-धनुर्धारी अर्जुन हैं, उसी पक्ष में श्री, विजय, विभूति और अचल नीति-ये सभी हैं और मेरी सम्मति भी उसी पक्ष में ही है। युद्ध में कौन जीतेगा और कौन हारेगा-इसका निर्णय वास्तव में उसी समय हो गया था, जब अर्जुन और दुर्योधन- दोनों युद्ध का निमन्त्रण देने भगवान श्रीकृष्ण के पास पहुँचे थे! अर्जुन ने अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित नारायणी सेना को छोड़कर निःशस्त्र भगवान श्रीकृष्ण को स्वीकार किया, और दुर्योधन ने भगवान को छोड़कर उनकी नारायणी सेना को स्वीकार किया। गीता के अन्त में संजय भी मानो उसी निर्णय की ओर संकेत करते हैं। यह सर्वविदित तथ्य है कि जहाँ भगवान श्रीकृष्ण विराजमान हैं, वहीं विजय है- ‘यतः कृष्णस्ततो जयः’[1] ब्रह्मषट्शून्यनेत्राब्दे हेमलम्बाख्यवत्सरे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (महाभारत भीष्म. 43।60, शल्य. 62।32)
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