गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 400

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

अठारहवाँ अध्याय

Prev.png

संजय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मन: ।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ॥74॥

संजय बोले- इस प्रकार मैंने भगवान वासुदेव और महात्मा पृथानन्दन अर्जुन का यह रोमांचित करने वाला अद्भुत संवाद सुना।

व्याख्या- भगवान का स्वयं अवतार लेकर मनुष्य जैसा काम करते हुए अपने-आप को प्रकट कर देना और ‘मेरी शरण में आ जा’- यह अत्यन्त रहस्य की बात कह देना- यही संवाद में रोमहर्षण करने वाली, प्रसन्न करने वाली, आनन्द देने वाली बात है।

गीता में ‘महात्मा’ शब्द केवल भक्तों के लिये आया है। यहाँ संजय ने अर्जुन को भी ‘महात्मा’ कहा है; क्योंकि वे अर्जुन को भक्त ही मानते हैं। भगवान ने भी कहा- ‘भक्तोऽसि मे’[1]

व्यासप्रसादाच्छुतवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयत: स्वयम् ॥75॥

व्यास जी की कृपा से मैंने स्वयं इस परमगोपनीय योग (गीताग्रन्थ)- को कहते हुए साक्षात योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से सुना है।

व्याख्या- भगवान श्रीकृष्ण और महात्मा अर्जुन का पूरा संवाद सुनने पर संजय के आनन्द की कोई सीमा नहीं रही। इसलिये वे हर्षोल्लास से भरकर कह रहे हैं कि मैंने यह संवाद परम्परा से अथवा किसी के द्वारा नहीं सुना है, प्रत्युत इसे मैंने साक्षात् भगवान के मुख से सुना है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 4।3)

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः