गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
दूसरा अध्याय
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यावायो न विद्यते । व्याख्या- भगवान ने चार प्रकार से समता की महिमा कही है- 1. समता से मनुष्य कर्म-बन्धन से छूट जाता है 2. समात के आरम्भ अर्थात उद्देश्य का भी कभी नाश नहीं होता 3. समात के अनुष्ठान में यदि कोई भूल हो जाय तो उसका उल्टा फल नहीं होता, और 4. समता का थोड़ा-सा भी भाव हो जाय तो वह कल्याण कर देता है। जीवन में थोड़ी भी समता आ जाय तो उसका नाश नहीं होता। भय कितना ही महान हो, उसका नाश हो जाता है। असत् को सत्ता तथा महत्ता देने से महान् समता भी स्वल्प हो जाती है और स्वल्प भय भी महान हो जाता है। यदि हम असत् को सत्ता तथा महत्ता न दें तो समता महान् और भय स्वल्प (नष्ट) हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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