गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
दूसरा अध्याय
व्याख्या- भगवान व्यवहार में परमार्थ की कला बताते हैं-सिद्धि-असिद्धि में सम (तटस्थ) रह कर निष्काम भाव से अपने कर्तव्य-कर्म का पालन करना। ऐसा करने से मनुष्य युद्ध-जैसा घोर कर्म करते हुए भी अपना कल्याण कर सकता है। इससे सिद्ध हुआ कि मनुष्य प्रत्येक परिस्थिति में अपना कल्याण करने में समर्थ तथा स्वतन्त्र है। एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धियोगे त्विमां श्रृणु । व्याख्या- भगवान ने इकतीसवें से सैंतीसवें श्लोक तक कर्तव्यविज्ञान (धर्मशास्त्र) अर्थात ‘कर्म’ का वर्णन किया, अब इस उन्तालीसवें श्लोक से तिरपनवें श्लोक तक योगविज्ञान (मोक्षशास्त्र) अर्थात ‘कर्मयोग’ का वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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