गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 39

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो यूद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥38॥

जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान करके फिर युद्ध में लग जा। इस प्रकार (युद्ध करने से) तू पाप को प्राप्त नहीं होगा।

व्याख्या- भगवान व्यवहार में परमार्थ की कला बताते हैं-सिद्धि-असिद्धि में सम (तटस्थ) रह कर निष्काम भाव से अपने कर्तव्य-कर्म का पालन करना। ऐसा करने से मनुष्य युद्ध-जैसा घोर कर्म करते हुए भी अपना कल्याण कर सकता है। इससे सिद्ध हुआ कि मनुष्य प्रत्येक परिस्थिति में अपना कल्याण करने में समर्थ तथा स्वतन्त्र है।

एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धियोगे त्विमां श्रृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥39॥

हे पार्थ! यह समबुद्धि तेरे लिये (पहले) सांख्ययोग में कही गयी और अब तू इसको कर्म योग के विषय में सुन; जिस समबुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मबन्धन का त्याग कर देगा।

व्याख्या- भगवान ने इकतीसवें से सैंतीसवें श्लोक तक कर्तव्यविज्ञान (धर्मशास्त्र) अर्थात ‘कर्म’ का वर्णन किया, अब इस उन्तालीसवें श्लोक से तिरपनवें श्लोक तक योगविज्ञान (मोक्षशास्त्र) अर्थात ‘कर्मयोग’ का वर्णन करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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