गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 336

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

सत्रहवाँ अध्याय

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विधिहीनमस्रष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥13॥

शास्त्रविधि से हीन, अन्न-दान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के बिना श्रद्धा के किये जाने वाले यज्ञ को तामस कहते हैं।

व्याख्या- इन यज्ञों में कर्ता, ज्ञान, क्रिया, धृति, बुद्धि, संग, शास्त्र, खान-पान आदि यदि सात्त्विक होंगे तो वह यज्ञ सात्त्विक हो जायगा, यदि राजस होंगे तो वह यज्ञ राजस हो जायगा, और यदि तामस होंगे तो वह तामस हो जायगा।

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्माचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥14॥
 
देवता, ब्राह्मण, गुरुजन और जीवन्मुक्त महापुरुष का यथायोग्य पूजन करना, शुद्धि रखना, सरलता, ब्रह्मचर्य का पालन करना और हिंसा न करना- यह शरीर-सम्बन्धी तप कहा जाता है।

व्याख्या- शारीरिक तप में ‘त्याग’ मुख्य है; जैसे- पूजन में अपने में बड़प्पन के भाव का त्याग है, शुद्धि रखने में आलस्य-प्रमाद का त्याग है, सरलता रखने में अभिमान का त्याग है, ब्रह्मचर्य में विषय-सुख का त्याग है, अहिंसा में अपने सुख के भाव का त्याग है। इस प्रकार त्याग मुख्य होने से शारीरिक तप होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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