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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
सोलहवाँ अध्याय
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ । व्याख्या- सातवें श्लोक में भगवान ने कहा था कि आसुर स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य-अकर्तव्य को नहीं जानते यहाँ भगवान बताते हैं कि वह आसुर-स्वभाव शास्त्र के अनुसार आचरण करने से ही मिटेगा। पूर्वपक्ष- जो शास्त्र पढ़े हुए नहीं हैं उन्हें कर्तव्य का ज्ञान कैसे होगा? उत्तरपक्ष- यदि उनका अपने कल्याण का उद्देश्य होगा तो अपने कर्तव्य का ज्ञान स्वतः होगा, क्योंकि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। यदि अपने कल्याण का उद्देश्य नहीं होगा तो शास्त्र पढ़ने पर भी कर्तव्य का ज्ञान नहीं होगा, उलटे अज्ञान बढ़ेगा कि हम अधिक जानते हैं! जिसके आचरण शास्त्र के अनुसार होते हैं, ऐसे सन्त-महापुरुषों के आचरणों और वचनों के अनुसार चलना भी शास्त्रों के अनुसार ही चलना है। वास्तव में देखा जाय तो जो महापुरुष परमात्मतत्त्व को प्राप्त हुए हैं, उनके आचरणों, आदर्शों, भावों आदि से ही शास्त्र बनते हैं। इतिहास के आधार पर सत्य का निर्णय नहीं हो सकता। कारण कि उस समय समाज की क्या परिस्थिति थी, और किसने किस परिस्थिति में क्या किया और क्यों किया, किस परिस्थिति में क्या कहा और क्यों कहा-इसका पूरा पता नहीं लग सकता। इसलिये इतिहास में आयी अच्छी बातों से मार्ग दर्शन तो हो सकता है, पर सत्य का निर्णय शास्त्र के विधि-निषेध से ही हो सकता है। इतिहास से विधि प्रबल है और विधि से भी निषेध प्रबल है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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