गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 329

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

सोलहवाँ अध्याय

Prev.png

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥24॥

अतः तेरे लिये कर्तव्य-अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है-ऐसा जनकर तू इस लोक में शास्त्रविधि से नियत कर्तव्य-कर्म करने योग्य है अर्थात तुझे शास्त्रविधि के अनुसार कर्तव्य-कर्म करने चाहिये।

व्याख्या- सातवें श्लोक में भगवान ने कहा था कि आसुर स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य-अकर्तव्य को नहीं जानते यहाँ भगवान बताते हैं कि वह आसुर-स्वभाव शास्त्र के अनुसार आचरण करने से ही मिटेगा।

पूर्वपक्ष- जो शास्त्र पढ़े हुए नहीं हैं उन्हें कर्तव्य का ज्ञान कैसे होगा?

उत्तरपक्ष- यदि उनका अपने कल्याण का उद्देश्य होगा तो अपने कर्तव्य का ज्ञान स्वतः होगा, क्योंकि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। यदि अपने कल्याण का उद्देश्य नहीं होगा तो शास्त्र पढ़ने पर भी कर्तव्य का ज्ञान नहीं होगा, उलटे अज्ञान बढ़ेगा कि हम अधिक जानते हैं!

जिसके आचरण शास्त्र के अनुसार होते हैं, ऐसे सन्त-महापुरुषों के आचरणों और वचनों के अनुसार चलना भी शास्त्रों के अनुसार ही चलना है। वास्तव में देखा जाय तो जो महापुरुष परमात्मतत्त्व को प्राप्त हुए हैं, उनके आचरणों, आदर्शों, भावों आदि से ही शास्त्र बनते हैं।

इतिहास के आधार पर सत्य का निर्णय नहीं हो सकता। कारण कि उस समय समाज की क्या परिस्थिति थी, और किसने किस परिस्थिति में क्या किया और क्यों किया, किस परिस्थिति में क्या कहा और क्यों कहा-इसका पूरा पता नहीं लग सकता। इसलिये इतिहास में आयी अच्छी बातों से मार्ग दर्शन तो हो सकता है, पर सत्य का निर्णय शास्त्र के विधि-निषेध से ही हो सकता है। इतिहास से विधि प्रबल है और विधि से भी निषेध प्रबल है।

ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुर सम्पद्वि भाग योगो नाम षोडशोऽध्यायः।।16।।
Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः