गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 328

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

सोलहवाँ अध्याय

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एतैर्विमुक्त: कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नर: ।
आचरत्यात्मन: श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ॥22॥

हे कुन्तीनन्दन! इन नरक के तीनों दरवाजों से रहित हुआ जो मनुष्य अपने कल्याण का आचरण करता है, वह उससे परम गति को प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या- काम-क्रोध- लोभ से रहित होने का तात्पर्य है- इनके त्याग का उद्देश्य रखना, इनके वश में न होना। काम से, क्रोध से अथवा लोभ से किया गया शुभ-कर्म भी कल्याणकारक नहीं होता। इसलिये इनके त्याग की तरफ विशेष ध्यान देना चाहिये। काम-क्रोध-लोभ को पकड़े रहने से कल्याण का आचरण (जप, ध्यान आदि) करने पर भी कल्याण नहीं होता; क्योंकि ये सम्पूर्ण पापों के कारण[1]तथा सम्पूर्ण अच्छे गुणों का भक्षण करने वाले हैं।


य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥23॥

जो मनुष्य शास्त्र विधि को छोड़कर अपनी इच्छा से मन माना आचरण करता है, वह न सिद्धि (अन्तःकरण की शुद्धि)- को, न सुख (शान्ति)-को और न परम गति को ही प्राप्त होता है।

व्याख्या- जैसे रोगी अपनी दृष्टि से तो कुपथ्य का त्याग और पथ्य का सेवन करता है, पर वह आसक्तिवश कुपथ्य ले लेता है, जिससे उसका रोग और अधिक बढ़ जाता है। ऐसे ही आसुर मनुष्य अपनी दृष्टि से तो अच्छा काम करते हैं, पर भीतर में काम, क्रोध और लोभ रहने के कारण वे शास्त्र विधि की अवहेलना करके मन माने ढंग से काम करने लग जाते हैं, जिससे वे अधोगति में चले जाते हैं। वे अभिमान के कारण अपने को सिद्ध और सुखी मानते हैं-‘सिद्धोऽहं बलवान्सुखी’[2], पर वास्तव में वे न सिद्ध होते हैं, न सुखी। उनके भीतर अभिमान और द्वेष की अग्नि जलती रहती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 3।37)
  2. (गीता 16।14)

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