विषय सूची
गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
सोलहवाँ अध्याय
एतैर्विमुक्त: कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नर: । व्याख्या- काम-क्रोध- लोभ से रहित होने का तात्पर्य है- इनके त्याग का उद्देश्य रखना, इनके वश में न होना। काम से, क्रोध से अथवा लोभ से किया गया शुभ-कर्म भी कल्याणकारक नहीं होता। इसलिये इनके त्याग की तरफ विशेष ध्यान देना चाहिये। काम-क्रोध-लोभ को पकड़े रहने से कल्याण का आचरण (जप, ध्यान आदि) करने पर भी कल्याण नहीं होता; क्योंकि ये सम्पूर्ण पापों के कारण[1]तथा सम्पूर्ण अच्छे गुणों का भक्षण करने वाले हैं।
व्याख्या- जैसे रोगी अपनी दृष्टि से तो कुपथ्य का त्याग और पथ्य का सेवन करता है, पर वह आसक्तिवश कुपथ्य ले लेता है, जिससे उसका रोग और अधिक बढ़ जाता है। ऐसे ही आसुर मनुष्य अपनी दृष्टि से तो अच्छा काम करते हैं, पर भीतर में काम, क्रोध और लोभ रहने के कारण वे शास्त्र विधि की अवहेलना करके मन माने ढंग से काम करने लग जाते हैं, जिससे वे अधोगति में चले जाते हैं। वे अभिमान के कारण अपने को सिद्ध और सुखी मानते हैं-‘सिद्धोऽहं बलवान्सुखी’[2], पर वास्तव में वे न सिद्ध होते हैं, न सुखी। उनके भीतर अभिमान और द्वेष की अग्नि जलती रहती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज