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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
सोलहवाँ अध्याय
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि । व्याख्या- यहाँ ‘मामप्राप्यैव’ (मुझे प्राप्त न कर के) पद से भगवान मानो पश्चात्ताप के साथ कहते हैं कि मैंने अत्यन्त कृपा करके जीवों को मनुष्य शरीर देकर इन्हें अपने उद्धार का अवसर दिया था और यह विश्वास किया कि ये अपना उद्धार अवश्य कर लेंगे, परन्तु ये नराधम इतने मूढ़ और विश्वासघाती निकले कि जिस मनुष्य जन्म से मेरी प्राप्ति करनी थी, उससे मेरी प्राप्ति न करके उलटे अधम गति में चले गये!
व्याख्या- भोग की इच्छा को लेकर ‘काम’ तथा संग्रह की इच्छा को लेकर ‘लोभ’ आता है और इन दोनों में बाधा पड़ने पर ‘क्रोध’ आता है। ये तीनों ही आसुरी सम्पत्ति के मूल हैं। सब पाप इन तीनों से ही होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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