गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 327

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

सोलहवाँ अध्याय

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आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि ।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥20॥

हे कुन्तीनन्दन! वे मूढ़ मनुष्य मुझे प्राप्त न करके ही जन्म-जन्मान्तर में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अधिक अधम गति में अर्थात भयंकर नरकों में चले जाते हैं।

व्याख्या- यहाँ ‘मामप्राप्यैव’ (मुझे प्राप्त न कर के) पद से भगवान मानो पश्चात्ताप के साथ कहते हैं कि मैंने अत्यन्त कृपा करके जीवों को मनुष्य शरीर देकर इन्हें अपने उद्धार का अवसर दिया था और यह विश्वास किया कि ये अपना उद्धार अवश्य कर लेंगे, परन्तु ये नराधम इतने मूढ़ और विश्वासघाती निकले कि जिस मनुष्य जन्म से मेरी प्राप्ति करनी थी, उससे मेरी प्राप्ति न करके उलटे अधम गति में चले गये!


त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन: ।
काम:क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥21॥

काम, क्रोध और लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के दरवाजे जीवात्मा का पतन करने वाले हैं, इसलिये इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये।

व्याख्या- भोग की इच्छा को लेकर ‘काम’ तथा संग्रह की इच्छा को लेकर ‘लोभ’ आता है और इन दोनों में बाधा पड़ने पर ‘क्रोध’ आता है। ये तीनों ही आसुरी सम्पत्ति के मूल हैं। सब पाप इन तीनों से ही होते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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