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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
सोलहवाँ अध्याय
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिता: । व्याख्या- आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य अपनी जिद पर अड़े रहते हैं और अपनी बात को ही सच्ची मानते हैं। यह सिद्धान्त है कि जो खुद दुःखी होता है, वही दूसरों को दुःख देता है। आसुर मनुष्य खुद दुःखी रहते हैं, इसलिये वे दूसरों को भी दुःख देते हैं। उन्हें कहीं भी गुण नहीं दीखता, प्रत्युत दोष-ही-दोष दीखते हैं। उनकी ऐसी मान्यता होती है कि सब अच्छाई हम में ही है। उन्हें संसार में कोई अच्छा आदमी दीखता ही नहीं। तानहं द्विषत: क्रूरान्संसारेषु नराधमान् । व्याख्या- भगवान् का क्रूर, निर्दय आसुर मनुष्यों में भी अपनापन है! भगवान उन को पराया नहीं समझते, अपना द्वेषी-वैरी नहीं समझते, प्रत्युत अपना ही समझते हैं। जैसे हितैषी अध्यापक विद्यार्थियों पर शासन करके, उनकी ताड़ना करके पढ़ाते हैं जिससे वे विद्वान बन जायँ, उन्नत बन जायँ, ऐसे ही जो मनुष्य भगवान को नहीं मानते, उनका खण्डन करते हैं, उनको भगवान आसुरी योनियों में गिराते हैं, जिससे उनके किये हुए पाप दूर हो जायँ और वे शुद्ध-निर्मल बनकर अपना कल्याण कर लें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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