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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
सोलहवाँ अध्याय
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालंसमावृता: । व्याख्या- ऊँचे लोकों की अथवा नरकों की प्राप्ति होने में क्रिया और पदार्थ कारण नहीं है, प्रत्युत भीतर का भाव कारण है। जैसा भाव होता है, वैसी ही क्रिया अपने-आप होती है। इसलिये भगवान ने आसुर मनुष्यों के भावों (मनोरथ आदि)-का वर्णन किया है। आत्मसम्भाविता: स्तब्धा धनमानमदान्विता: व्याख्या- आसुर स्वभाव वाले मनुष्य दूसरों से प्रतिस्पर्धा रखते हैं और इसलिये यज्ञ करते हैं कि दूसरों की अपेक्षा हममें कोई कभी न रह जाय अर्थात कोई हमें यज्ञ करने वालों की अपेक्षा नीचा न मान ले। वे लेागों में केवल अपनी प्रसिद्धि करने के लिये यज्ञ करते हैं, फर पर विश्वास नहीं रखते। दूसरा व्यक्ति यज्ञ करता है तो वे ऐसा समझते हैं कि वह भी अपनी प्रसिद्धि के लिये ही यज्ञ करता है। ईश्वर और परलोक पर विश्वास न होने के कारण उनकी दृष्टि विधि पर नहीं रहती। विधिक का विचार वही करते हैं, जो ईश्वर और परलोक को मानते हैं कि अमुक कर्म करेंगे तो उसका अमुक फल मिलेगा। आसुर मनुष्यों की चेष्टाएँ प्रायः दिखावटी होती हैं; परन्तु उनके भीतर यह अभिमान होता है कि हम दूसरों से भी बढ़िया यज्ञ करेंगे। उनमें अपनी जानकारी-का भी अभिमान होता है कि हम समझदार हैं, दूसरे सब मूर्ख हैं, समझते नहीं। वास्तव में उनमें कोरी मूर्खता भरी होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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