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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
सोलहवाँ अध्याय
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्यस्ये मनोरथम् । व्याख्या- पूर्वपक्ष- दैवी-सम्पत्ति वाले साधकों के मन में भी कभी-कभी व्यापार आदि को लेकर ऐसी स्फुरणाएँ होती हैं कि इतना काम तो हो गया, इतना काम करना बाकी है और इतना काम आगे हो जायगा, इतना पैसा (व्यापार आदि में) आ गया है और इतना पैसा वहाँ देनला है, आदि-आदि। फिर उनमें और आसुरी-सम्पत्ति वाले मनुष्यों में क्या अन्तर हुआ? उत्तरपक्ष- दोनों की वृत्तियाँ एक-सी दीखने पर भी दोनों के उद्देश्य में बहुत अन्तर है। साधक का उद्देश्य परमात्म प्राप्ति का होता है; अतः वह उन वृत्तियों में तल्लीन नहीं होता। परन्तु आसुरी सम्पत्ति वालों का उद्देश्य धन का संग्रह करने तथा भोग भोगने को रहता है; अतः वे उन वृत्तियों में ही तल्लीन रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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