विषय सूची
गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
सोलहवाँ अध्याय
आशापाशशतैर्बद्धा: कामक्रोधपरायणा: । व्याख्या- जब तक मनुष्य का सम्बन्ध शरीर-संसार के साथ रहता है, तब तक उसकी कामनाओं का अन्त नहीं आता। दूसरे अध्याय के इकतालीसवें श्लोक में भी आया है कि अव्यवसायी मनुष्यों की बुद्धियाँ अनन्त और बहुशाखाओं वाली होती हैं। कारण कि उन्होंने अविनाशी तत्त्व से विमुख होकर नाशवान को सत्ता और महत्ता दे दी तथा उसके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लिया। आसुर स्वभाव वाले मनुष्य काम और क्रोध को स्वाभाविक मानते हैं। काम और क्रोध के सिवाय उन्हें और कुछ दीखता ही नहीं, इनसे आगे उनकी दृष्टि जाती ही नहीं। मनुष्य समझता है कि क्रोध करने से दूसरा हमारे वश में रहेगा। परन्तु जो मजबूर, लाचार होकर हमारे वश में हुआ है वह कब तक वश में रहेगा? मौका पड़ते ही वह घात करेगा। अतः क्रोध का परिणाम बुरा ही होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज