गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 311

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

पन्द्रहवाँ अध्याय

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उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत: ।
यो लोकत्रयमाविश्य विभर्त्यव्यय ईश्वर: ॥17॥

उत्तम पुरुष तो अन्य (विलक्षण) ही है, जो ‘परमात्मा’- इस नाम से कहा गया है। वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर सबका भरण-पोषण करता है।

व्याख्या- पुरुषोत्मम को ‘अन्य’ कहने का तात्पर्य है कि क्षर और अक्षर तो लौकिक हैं, पर पुरुषोत्तम दोनों से विलक्षण अर्थात अलौकिक हैं। अतः परमात्मा विचार के विषय नहीं है, प्रत्युत श्रद्धा-विश्वाल के विषय हैं। परमात्म के होने में भक्त, सन्त-महात्मा, वेद और शास्त्र ही प्रमाण हैं। ‘अन्य’ का स्पष्टीकरण भगवान ने अगले श्लोक में किया है।

भगवान मात्र प्राणियों का पालन-पोषण करते हैं। पालन-पोषण करने में भगवान किसी के साथ कोई पक्षपात (विषमता) नहीं करते। वे भक्त-अभक्त, पापी-पुण्यात्मा, आस्तिक-नास्तिक आदि सबका समानरूप से पालन-पोषण करते हैं। प्रत्यक्ष देखने में भी आता है कि भगवान द्वारा रचित सृष्टि में सूर्य सबको समानरूप से प्रकाश देता है, पृथ्वी सबको समानरूप से धारण कती है, वायु श्वास लेने के लिये सबको समानरूप से प्राप्त होती है, अन्न- जल सबको समानरूप से तृप्त करते हैं, इत्यादि। जब भगवान के द्वारा रचित सृष्टि भी इतनी निष्पक्ष, उदार है तो फिर भगवान स्वयं कितने निष्पक्ष, उदार होंगे।

आधुनिक वेदान्तियों ने ईश्वर को कल्पित बताकर साधक-जगत की बहुत बड़ी हानि की है! उन्हें इस बात का भय है कि ईश्वर को मानने से अपने अद्वैत सिद्धान्त में कमी आ जायगी! परन्तु ईश्वर किस की कल्पना है- इसका उत्तर उनके पास नहीं है। वास्तव में सत्ता एक ही (अद्वैत) है, पर अपने राग के कारण दूसरी सत्ता (द्वैत) दीखती है। दूसरी सत्ता का तात्पर्य संसार से है, ईश्वर से नहीं, क्योंकि संसार ‘पर’ है और ईश्वर ‘स्व’ (स्वकीय) है। अपना राग मिटाये बिना दूसरी सत्ता नहीं मिटेगी। राग तो अपना है, पर मान लिया ईश्वर को कल्पित! अतः ईश्वर को कल्पित न मानकर अपना राग मिटाना चाहिये। ईश्वर कल्पित नहीं है, प्रत्युत अलौकिक है। वह मायारूपी धेनुका बछ़ड़ा नहीं है, प्रत्युत साँड़ है! उपनिषद् में भी आया है- ‘मायां तु प्रकृतिं विद्यान्यायिनं तु महेश्वरम्’[1]’ माया तो प्रकृति को समझाना चाहिये और मायापति महेश्वर को समझना चाहिये। आज तक जिस ईश्वर के असंख्य भक्त हो चुके हैं, वह कल्पित कैसे हो सकता है?’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (श्वेताश्वतर. 4।10)

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