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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
पन्द्रहवाँ अध्याय
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । व्याख्या- पहले छठे श्लोक में और फिर बारहवें से पन्द्रहवें श्लोक तक भगवान ने अलौकिक तत्त्व का वर्णन किया कि स्वतन्त्र सत्ता अलौकिक की ही है, लौकिक की नहीं। लौकिक की सत्ता अलौकिक से ही है। अलौकिक से ही लौकिक प्रकाशित होता है। लौकिक में जो प्रभाव देखने में आता है, वह सब अलौकिक का ही है। अब सोलहवें श्लोक में भगवान ‘लोके’ पद से ‘लौकिक तत्त्व’ का वर्णन करते हैं। क्षर (जगत) तथा अक्षर (जीव)- दोनों लौकिक हैं, और भगवान इन दोनों से विलक्षण अर्थात अलौकिक हैं-‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः’[1]। कर्मयोग और ज्ञान योग- ये दो योगमार्ग भी लौकिक हैं- ‘लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा..’[2]। क्षर को लकर कर्मयोग और अक्षर को लेकर ज्ञानयोग चलता है, परन्तु भक्तियोग अलौकिक है, जो भगवान को लेकर चलता है। सातवें अध्याय में वर्णित अपरा प्रकृति को यहाँ ‘क्षर’ नाम से और परा प्रकृति को यहाँ ‘अक्षर’ नाम से कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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