गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 309

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

पन्द्रहवाँ अध्याय

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सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥15॥

मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ तथा मुझ से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (संशय आदि दोषों का नाश) होता है। सम्पूर्ण वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ। वेदों के तत्त्व का निर्णय करने वाला और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ।

व्याख्या- पिछले तीन श्लोकों में भगवान ने प्रभाव और क्रियारूप से अपनी विभूतियों का वर्णन किया, अब प्रस्तुत श्लोक में स्वयं अपना वर्णन करते हैं। तात्पर्य है कि इस श्लोक में स्वयं भगवान का वर्णन है, आदित्यगत, चन्द्रगत, अग्निगत अथवा वैश्वानरगत भगवान का वर्णन नहीं। मूल में एक ही तत्त्व है, केवल वर्णन में भिन्नता है।

पहले ‘ममैवांशो जीवलोके’[1]पदों से यह सिद्ध हुआ कि भगवान अपने हैं और यहाँ ‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’ पदों से यह सिद्ध होता है कि भगवान अपने में हैं। भगवान को अपना स्वीकार करने से उनमें स्वाभाविक प्रेम होगा और अपने में स्वीकार करने से उन्हें पाने के लये दूसरी जगह जाने की जरूरत नहीं रहेगी। सबके हृदय में रहने के कारण भगवान प्राणिमात्र को नित्यप्राप्त हैं; अतः किसी भी साधक को भगवान की प्राप्ति से निराश नहीं होना चाहिये।

भगवान कहते हैं कि वेद अनेक है, पर उन सबमें जानने योग्य एक मैं ही हूँ और उन सबको जानने वाला भी मैं ही हूँ। तात्पर्य है कि सब कुछ मैं ही हूँ- ‘वासुदेवः सर्वम्।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (15।7)

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