गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 308

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

पन्द्रहवाँ अध्याय

Prev.png

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: ।
प्राणापानसमायुक्त:[1]पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥14॥

प्राणियों के शरीर में रहने वाला मैं प्राण- अपान से युक्त वैश्वानर (जठराग्नि) होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।

व्याख्या- पृथ्वी में प्रविष्ट होकर सम्पूर्ण प्राणियों को धारण करना, चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण वनस्पतियों का पोषण करना, फिर उनको खाने वाले प्राणियों के भीतर जठराग्नि होकर खाये हुए अन्न हो पचाना आदि सम्पूर्ण कार्य भगवान की ही शक्ति से होते हैं। परन्तु मनुष्य उन कार्यों को अपने द्वारा किया जाने वाला मानकर व्यर्थ में ही अभिमान कर लेता है; जैसे बैलगाड़ी के नीचे छाया में चलने वाला कुछ समझता है कि बैलगाड़ी मैं ही चलाता हूँ!।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता में सब जगह प्राण और अपान-इन दो का ही वर्णन हुआ है; जैसे-1.अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।(4।29)2.प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचाारिणौ।।(5।27)

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः