विषय सूची
गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
पन्द्रहवाँ अध्याय
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम: । व्याख्या- क्षर और अक्षर की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, पर परमात्मा की स्वतन्त्र सत्ता है। क्षर और अक्षर दोनों परमात्मा में ही रहते हैं। परन्तु अक्षर अर्थात जीव क्षर के साथ सम्बन्ध जोड़कर उसके अधीन हो जाता है-‘ययेदं धार्यते जगत्’[1]। परमात्म क्षर के अधीन नहीं होते, प्रत्युत क्षर से अतीत रहते हैं। इसलिये परमात्मा अक्षर (जीव)-से भी उत्तम हैं। यदि जीव जगत के साथ सम्बन्ध न जोड़कर उसके स्वामी परमात्मा के साथ सम्बन्ध जोड़े तो वह परमात्मा से अभिन्न (आत्मीय) हो जायगा-‘ज्ञानी त्वात्मैक मे मतम्’[2] मुक्ति में तो अक्षर (स्वरूप)- में स्थिति होती है, पर भक्ति में अक्षर से भी उत्तम पुरुषोत्तम की प्राप्ति होती है। स्वरूप अंश है, पुरुषोत्तम अंशी हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज