गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 291

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौदहवाँ अध्याय

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नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा दृष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मदूभावं सोऽधिगच्छति ॥19॥

जब विवेकी (विचार-कुशल) मनुष्य तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और अपने को गुणों से पर अनुभव करता है, तब वह मेरे सत्स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या- सम्पूर्ण क्रियाओं के होने में गुण ही कारण हैं, अन्य कोई कारण नहीं है। विवेकशील साधक जिससे गुण प्रकाशित होते हैं, उस प्रकाशक में अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव करता है अर्थात अपने को गुणों (क्रियाओं और पदार्थों)- से असंग अनुभव करता है। गुणों से असंग अनुभव करने पर वह योगारूढ़ हो जाता है[1]। योगारूढ़ होने से शान्ति की प्राप्ति होती है और उस शान्ति में न अटकने से ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 6।4)

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