विषय सूची
गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
चौदहवाँ अध्याय
सत्त्वातसञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च । व्याख्या- ज्ञान (विवेक) सत्त्वगुण से प्रकट होता है और संग न करने पर बढ़ते-बढ़ते तत्त्वज्ञान में परिणत हो जाता है। परन्तु रजोगुण-तमोगुण से होने वाले लोभ, प्रमाद, मोह, अज्ञान बढ़ते है। तो कोई नुकसान बाकी नहीं रहता, कोई दुःख बाकी नहीं रहता, कोई मूढ़योनि बाकी नहीं रहती, कोई नरक बाकी नहीं रहता। ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसा: । व्याख्या- सात्त्विक, राजस अथवा तामस मनुष्य की गति तो अन्तिम चिन्तन के अनुसार होगी, पर सुख-दुःख का भोग उनके कर्मों के अनुसार ही होगा। उदाहरणार्थ, किसी के कर्म तो अच्छे हैं, पर अन्तिम चिन्तन पशु का हो गया तो अन्तिम चिन्तन के अनुसार वह पशु बन जायगा, परन्तु उस पशुयोनि में भी उसे कर्मों के अनुसार बहुत सुख-आराम मिलेगा। इसी प्रकार किसी के कर्म तो बुरे हैं, पर अन्तिम चिन्तन के अनुसार वह मनुष्य बन गया तो उस मनुष्य योनि में भी उसे कर्मों के अनुसार दुःख, शोक, रोग आदि मिलेंगे। आधुनिक वेदान्त में आया है कि सत्त्वगुण से पुण्य तथा रजोगुण से पाप उत्पन्न होता है; किन्तु तमोगुण से आयु वृथा होती है- सात्त्विकैः पुण्यनिष्पत्तिः पापोत्पत्तिश्च राजसैः। परन्तु यह बात गीता से विरुद्ध पड़ती है। भगवान यहाँ कहते हैं कि तमोगुण से मनुष्य को अधोगति की प्राप्ति होती है- ‘अधो गच्छन्ति तामसाः’। पहले भी भगवान ने कहा है- ‘तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते’[2]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज