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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
चौदहवाँ अध्याय
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते । व्याख्या- जिसने जीवन भर अच्छे कर्म किये हैं, जिसके अच्छे भाव रहे हैं, वह यदि अन्तकाल में रजोगुण के बढ़ने पर मर जाता है तो मनुष्य योनि में जन्म लेने पर भी उसके आचरण भाव अच्छे रहेंगे। इसी प्रकार अच्छे कर्म करने वाला यदि अन्तकाल में तमोगुण के बढ़ने पर मर जाता है तो पशु, पक्षी आदि मूढ़योनि में जन्म लेने पर भी उसके आचरण, भाव अच्छे ही रहेंगे। रजोगुण में ‘राग’- अंश’ ही जन्म-मरण देने वाला है, ‘क्रिया’-अंश नहीं। पदार्थ, क्रिया अथवा व्यक्ति, किसी में भी राग हो जायगा तो वह मनुष्योनि में जन्म लेगा। मनुष्य स्वाभाविक कर्मसंगी है; क्योंकि नेये कर्म करने का अधिकार मनुष्य योनि में ही है। कर्मण: सुकृतस्याहु: सात्त्विकं निर्मलं फलम् । व्याख्या- वास्तव में कर्म सात्त्विक-राजस-तामस नहीं होते, प्रत्युत कर्ता ही सात्त्विक-राजस-तामस होता है। जैसा कर्ता होता है, उसके द्वारा वैसे ही कर्म होते हैं, जैसे कर्म होते हैं, वैसा ही भाव दृढ़ होता है। जैसा भाव होता है, उसके अनुसार ही अन्तकालीन चिन्तन होता है। अन्तकालीन चिन्तन के अनुसार ही गति होती है[1]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 8।6)
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