गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 292

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौदहवाँ अध्याय

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गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादु: खैर्विमुक्तोऽमृतमश्नते ॥20॥

देहधारी (विवेकी मनुष्य) देह को उत्पन्न करने वाले इन तीनों गुणों का अतिक्रमण करने जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था रूप दुःखों से रहित हुआ अमरता का अनुभव करता है।

व्याख्या- मनुष्य मात्र के भीतर यह भाव रहता है कि मैं बना रहूँ, कभी मरूँ नहीं। वह अमर रहना चाहता है। अमरता की इस इच्छा से सिद्ध होता है कि वास्तव में वह अमर है। यदि वह अमर न होता तो उसमें अमरता की इच्छा भी नहीं होती। उदाहरणार्थ, हमें भूख और प्यास लगती है तो इससे सिद्ध होता है कि ऐसी वस्तु (अन्न और जल) है, जिससे भूख और प्यास मिट जाती है। यदि अन्न-जल न होते तो भूख-प्यास भी नहीं लगती। अतः अमरता स्वतःसिद्ध है[1]। परन्तु जब मनुष्य अपने विवेक को महत्त्व न देकर शरीर के साथ तादात्म्य कर लेता है अर्थात ‘मैं शरीर हूँ’ ऐसा मान लेता है, तब उसमें मृत्यु का भय और अमरता की इच्छा पैदा हो जाती है। जब वह अपने विवेक को महत्त्व देता है कि ‘मैं शरीर नहीं हूँ; शरीर तो निरन्तर मृत्यु में रहता है और मैं स्वयं निरन्तर अमरता में रहता हूँ’ तब उसे अपनी स्वतः सिद्ध अमरता का अनुभव हो जाता है। अतः साधक को चाहिये कि वह जन्म मृत्यु, वृद्धावस्था आदि शरीर के विकारों को मुख्यता न देकर अपनी चिन्मय सत्ता (होने पन)- को ही मुख्यता दे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 8।19)

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