गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 259

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तेरहवाँ अध्याय

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अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रह: ॥7॥

अपने में श्रेष्ठता का भाव न होना, दिखावटीपन न होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, स्थिरता और मन का वश में होना।

व्याख्या- अब भगवान क्षेत्र के साथ माने हुए सम्बन्ध (तादात्म्य)-को तोड़ने के लिये ज्ञान के साधन बताते हैं।

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदु:खदोषानुदर्शनम् ॥8॥

इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य होना, अहंकार का भी न होना और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियों में दुःखरूप दोषों को बार-बार देखना।

व्याख्या- एक ‘दुःख का भोग’ होता है और एक ‘दुःख का प्रभाव’ होता है। दुःख से दुःखी होना और सुख की इच्छा करना ‘दुःख का भोग’ है। दुःख क कारण की खोज करके उसको मिटाना ‘दुःख का प्रभाव’ है। यहाँ दुःख के प्रभाव को ‘दुःखदोषानुदर्शनम्’ पद से कहा गया है।

दुःख का भोग करने से अर्थात दुःखी होने से विवेक लुप्त हो जाता है। परन्तु दुःख का प्रभाव होने से विवेक लुप्त नहीं होता, प्रत्युत मनुष्य विवेक-दृष्टि से दुःख के कारण की खोज करता है और खोज करके उसे मिटाता है। सुख की इच्छा ही सम्पूर्ण दुःखों का कारण है। कारण के मिटने पर कार्य अपने-आप मिट जाता है। अतः सुख की इच्छा मिटने पर सम्पूर्ण दुःखों का नाश हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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