गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 260

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तेरहवाँ अध्याय

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असक्तिरनभिष्वंग: पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्त्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥9॥

आसक्ति रहित होना, पुत्र, स्त्री, घर आदि में एकात्मता (घनिष्ठ सम्बन्ध) न होना और अनुकूलता-प्रतिकूलता की प्राप्ति में चित्त का नित्य सम रहना।

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥10॥

मुझमें अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना, एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना और जन-समुदाय में प्रीति का न होना।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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