गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
दसवाँ अध्याय
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् । व्याख्या- महर्षिगण भगवान के आदि को तो नहीं जान सकते,पर वे भगवान को अज-अनादि तो जानते ही हैं। भगवान का अंश होने से जीव स्वयं भी अज-अनादि है। अतः वह जैसे भगवान को अज-अनादि जानता है, वैसे ही अपने को भी अज-अनादि जानता है। कारण कि जैसे संसार से अलग होकर ही संसार को जान सकते हैं; क्योंकि वास्तव में हम संसार से अलग ही हैं, ऐसे ही भगवान से अभिन्न होकर ही भगवान को जान सकते हैं; क्योंकि वास्तव में हम भगवान से अभिन्न ही हैं। अपने को अज-अनादि जानने पर जीव मूढ़तारहित हो जाता है, फिर उसमें पाप कैसे रहेंगे? क्योंकि पाप तो पीछे पैदा हुए हैं, अज-अनादि पहले से हैं। बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोह: क्षमा सत्यं दम: शम: । व्याख्या- ज्ञान की दृष्टि से तो सभी भाव प्रकृति से होते हैं, पर भक्ति की दृष्टि से सभी भाव भगवान से तथा भगवत्स्व रूप होते हैं। अगर इन भावों को जीवका मानें तो जीव भी भगवान की ही परा प्रकृति होने से भगवान से अभिन्न है। अतः ये भाव भगवान के ही हुए। भगवान में तो ये भाव निरन्तर रहते हैं पर जीव में अपरा प्रकृति के संग से आते-जाते रहते हैं। भगवान से उत्पन्न होने के कारण सभी भाव भगवत्स्वरूप ही हैं। जैसे हाथ एक ही होता है, पर उसमें अँगुलियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, ऐसे ही भगवान एक ही हैं, पर उनसे प्रकट होने वाले भाव भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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