गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 192

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दसवाँ अध्याय

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यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असंम्मूढ: स मर्त्येषु सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥3॥

जो मनुष्य मुझे अजन्मा, अनादि और सम्पूर्ण लोकों का महान ईश्वर जानता है अर्थात दृढ़ता से (सन्देहरहित) स्वीकार कर लेता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान है और वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।

व्याख्या- महर्षिगण भगवान के आदि को तो नहीं जान सकते,पर वे भगवान को अज-अनादि तो जानते ही हैं। भगवान का अंश होने से जीव स्वयं भी अज-अनादि है। अतः वह जैसे भगवान को अज-अनादि जानता है, वैसे ही अपने को भी अज-अनादि जानता है। कारण कि जैसे संसार से अलग होकर ही संसार को जान सकते हैं; क्योंकि वास्तव में हम संसार से अलग ही हैं, ऐसे ही भगवान से अभिन्न होकर ही भगवान को जान सकते हैं; क्योंकि वास्तव में हम भगवान से अभिन्न ही हैं। अपने को अज-अनादि जानने पर जीव मूढ़तारहित हो जाता है, फिर उसमें पाप कैसे रहेंगे? क्योंकि पाप तो पीछे पैदा हुए हैं, अज-अनादि पहले से हैं।

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोह: क्षमा सत्यं दम: शम: ।
सुखं दु:खं भभवोऽभावो यं चाभयमेव च ॥4॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयश: ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधा: ॥5॥

बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम तथा सुख, दुःख, उत्पत्ति, विनाश, भय, अभय और अहिंसा, समता, सन्तोष, तप, दान, यश और अपयश-प्राणियों के ये अनेक प्रकार के अलग-अलग (बीस) भाव मुझसे ही होते हैं।

व्याख्या- ज्ञान की दृष्टि से तो सभी भाव प्रकृति से होते हैं, पर भक्ति की दृष्टि से सभी भाव भगवान से तथा भगवत्स्व रूप होते हैं। अगर इन भावों को जीवका मानें तो जीव भी भगवान की ही परा प्रकृति होने से भगवान से अभिन्न है। अतः ये भाव भगवान के ही हुए। भगवान में तो ये भाव निरन्तर रहते हैं पर जीव में अपरा प्रकृति के संग से आते-जाते रहते हैं। भगवान से उत्पन्न होने के कारण सभी भाव भगवत्स्वरूप ही हैं।

जैसे हाथ एक ही होता है, पर उसमें अँगुलियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, ऐसे ही भगवान एक ही हैं, पर उनसे प्रकट होने वाले भाव भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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