गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 309

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 3
कर्म-योग
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कर्मों का सीधा सम्बन्ध ज्ञान के साथ है और ज्ञान का मोक्ष के साथ। कर्म से चित्त-शुद्धि; चित्त-शुद्धि से ज्ञान और ज्ञान से मोक्ष यह क्रम है। ज्ञान प्राप्ति के लिए शम, दम, तितिक्षा आदि आन्तरिक साधनों की; यज्ञ, तप, दान आदि बाह्य साधनों की, तथा श्रवण, मनन, ध्यान, उपासना आदि साधनों की आवश्यकता है। निर्गुण निराकार परमब्रह्म का आभास[1] सगुण-साकार जीव के रूप में देह में प्रकट होता है जो परिशुद्ध चित्त में प्रतिबिम्बित होता है जिसाक अनुभय या ज्ञान परिपक्व बुद्धि से ही हो सकता है। राग-द्वेष, माया, मोह आदि से अशुद्ध चित्त में परमात्मा का आभास नहीं होता। निष्काम भाव से अनुष्ठित यज्ञ-तप-दान आदि बाह्य साधनों से चित्त का मल धुल जाता है; शम-दम आदि आन्तरिक साधनों से बुद्धि परिपक्व होती है, और परिपक्व बुद्धि से ही परमात्मा की पहचान, ज्ञान का अनुभव होता है।

जीवात्मा परमात्म-स्वरूप होते भी लोग यही मानते हैं कि जीव से ही अधर्म या पापाचरण होता है। पापाचरण यदि जीवात्मा का धर्म बन जावे तो जीवात्मा पापाचरण से कभी मुक्त नहीं हो सकता क्योंकि कोई भी पदार्थ अपने धर्म से मुक्त नहीं हो सकता। जीव का जीव-भाव अर्थात “मैं” भाव ही काल्पनिक व मिथ्या है और जो पापाचरण का आरोपण जीवात्मा पर आरोपित किया जाता है वह भी मिथ्या व काल्पनिक है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रतिबिम्ब

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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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