गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 305

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 3
कर्म-योग
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शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि इन्द्रियों के विषय हैं इन्द्रियाँ इनको ग्रहण करती हैं और इनसे पैदा होने वाले संस्कारों को मन तक पहुँचाती हैं अतः मन को पदार्थों का ज्ञान ज्ञानेन्द्रियों द्वारा होता है। मन से सुना जाता है, देखा जाता है; काम, संकल्प, संशय, श्रद्धा, अश्रद्धा, धृति, अधृति, लज्जा, बुद्धि, ज्ञान आदि सब मन के अन्तर्गत आते हैं; समाधि, ध्यान, उपासना मन के द्वारा होते हैं परमात्मा का अनुभव भी मन के द्वारा होता है। इस प्रकार आत्मा और ज्ञानेन्द्रियों के बीच में पदार्थों का ज्ञान कराने वाली जो शक्ति है वह मन, बुद्धि या अन्तःकरण कहलाती है। आत्मा की यह ज्ञान शक्ति तथा इन्द्रियों की ज्ञान-ग्रहण-शक्ति अखण्ड रूप से चलती रहती है। यदि इन्द्रियाँ पदार्थों के ज्ञान को ग्रहण न करें तो मन को उन पदार्थों का ज्ञान नहीं होगा। आत्मा[1] को अतः विषयों का अनुभव करने के लिए इन्द्रियों पर अवलम्बित रहना पड़ता है। शरीर और इन्द्रियाँ की उपाधियों के कारण “मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ” ऐसा अनुभव जीवात्मा को होता है। श्रुति, स्मृति, उपनिषद् द्वारा यह निर्धारित कर दिया गया है कि देह, इन्द्रियाँ आदि की उपाधियाँ असत्य, काल्पनिक व मिथ्या होती हैं।

जीवात्मा परमात्म-स्वरूप चैतन्य व सर्वज्ञ तथा अकर्ता-अभोक्ता होते भी बुद्धि, मन, शरीर, इन्द्रियाँ आदि की उपाधि के कारण कर्ता व भोक्ता प्रतीत होता है। अपने यथार्थ परमात्म-स्वरूप को न पहचानने या न जानने के कारण ही मनुष्य अपने आपको कर्ता-भोक्ता मानता है और अहंकारपूर्ण कर्तत्त्व भावना रखता है। जीवात्मा वास्तव में परमात्मस्वरूप होने से तथा ईश्वर का अंश होने से सदैव अकर्ता-अभोक्ता रहता है। ब्रह्माण्ड-व्यापी ईश्वर अत्यन्त महान् है वही ब्रह्माण्ड का स्रष्टा है किन्तु वह महान् अनन्त ईश्वर जब देह पैदा कर उसमें जीवात्मरूप से प्रवेश करता है तो देहादि की उपाधि के कारण छोटा व सूक्ष्म प्रतीत होता है। अतः-

(1) जीवात्म ईश्वर का अविभाज्य अंग है; ईश्वर इस अंग का नियन्ता[2] है औश्र जीव नियम्म[3] है।

(2) जीव शरीर रूपी उपाधि के अधीन है किन्तु ईश्वर ब्रह्माण्ड की उपाधि से युक्त होने पर भी उसके अधीन नहीं है वह अत्यन्त विशुद्ध है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जीवात्मका
  2. नियमन करने वाला
  3. नियमन में रहने वाला

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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