गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1062

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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।। श्लोक 30 से 32 का भावार्थ।।

  • श्लोक 30- जो बुद्धि यह जानती व पहचानती है किः-

(1) कर्म के करने में अथवा न करने में मनुष्य की प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति क्यों और किन-किन कारणों से होती है। और

(2) जो बुद्धि यह भी जान लेती है कि कौन-सा कार्य करने योग्य है और कौन-सा कार्य करने के अयोग्य है अर्थात जो कार्याऽकार्य-बोधनीय बुद्धि या व्यवसायात्मिका बुद्धि होती है। और

(3) जो बुद्धि यह भी जान लेती है कि भय और अभय[1] क्या होता है; किससे भय खाना चाहिए और किस बात से निडर रहना चाहिए; और

(4) जिस बुद्धि के द्वारा यह भी ज्ञान हो जावे कि किन-किन कारणों से मनुष्य कर्म-बन्धनों से बद्ध होता है तथा किन उपायों के द्वारा वह बन्धन-मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है; इस बुद्धि को “सात्त्विक-बुद्धि” कहते हैं।

  • श्लोक 31- में उस बुद्धि को राजसी कहा गया है जो कार्य-अकार्य का; करणीय- अकरणीय का; धर्म-अधर्म का निर्णय नहीं कर सकती। राजसी-बुद्धि वाला व्यक्ति अयुक्त, अभिमानी, अहंकारी, स्वयं को कर्मों का कर्त्ता मानने वाला, काव्य-कर्म-कारी, ईश्वर में निष्ठा न रखने वाला नास्तिक व आसुरी वृत्ति वाला होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. डरना या न डरना

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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