गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
मोक्ष-संन्यास-योग
।। श्लोक 30 से 32 का भावार्थ।।
(1) कर्म के करने में अथवा न करने में मनुष्य की प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति क्यों और किन-किन कारणों से होती है। और (2) जो बुद्धि यह भी जान लेती है कि कौन-सा कार्य करने योग्य है और कौन-सा कार्य करने के अयोग्य है अर्थात जो कार्याऽकार्य-बोधनीय बुद्धि या व्यवसायात्मिका बुद्धि होती है। और (3) जो बुद्धि यह भी जान लेती है कि भय और अभय[1] क्या होता है; किससे भय खाना चाहिए और किस बात से निडर रहना चाहिए; और (4) जिस बुद्धि के द्वारा यह भी ज्ञान हो जावे कि किन-किन कारणों से मनुष्य कर्म-बन्धनों से बद्ध होता है तथा किन उपायों के द्वारा वह बन्धन-मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है; इस बुद्धि को “सात्त्विक-बुद्धि” कहते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ डरना या न डरना
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