विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्थ अध्याय
बीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः। राग और विराग, दोनों से परे वीतराग तथा इसी प्रकार भय-अभय, क्रोध-अक्रोध दोनों से परे, अनन्य भाव से अर्थात अहंकाररहित मेरी शरण हुए बहुत से लोग ज्ञान-तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं। अब ऐसा होने लगा हो-ऐसी बात नहीं है, यह विधान सदैव रहा है। बहुत से पुरुष इसी प्रकार से मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं। किस प्रकार? जिन-जिन का हृदय अधर्म की वृद्धि देखकर परमात्मा के लिये ग्यालि से भर गया, उस स्थिति में मैं अपने स्वरूप को रचता हूँ। वे मेरे स्वरूप को प्राप्त होते हैं। जिसे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने तत्त्वदर्शन कहा, उसे ही अब ‘ज्ञान’ कहते हैं। परमतत्त्व है परमात्मा, उसे प्रत्यक्ष दर्शन के साथ जानना ज्ञान है। ऐसी जानकारीवाले ज्ञानी मेरे स्वरूप को प्राप्त करते हैं। यहाँ यह प्रश्न पूरा हो गया। अब वे योग्यता के आधार पर भजनेवालों का श्रेणी-विभाजन करते हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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