यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 200

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।11।।

पार्थ! जो मुझे जितनी लगन से जैसा भजते हैं, मैं भी उनको वैसा ही भजता हूँ। उतनी ही मात्रा में सहयोग देता हूँ। साधक की श्रद्धा ही कृपा बनकर उसे मिलती है। इस रहस्य को जनकर सुधीजन सम्पूर्ण भावों से मेरे मार्ग के अनुसार ही बरतते हैं। जैसा मैं बरतता हूँ, जो मुझे प्रिय है वैसा ही आचरण करते हैं। जो मैं कराना चाहता हूँ, वही करते हैं।

भगवान कैसे भजते हैं? वे रथी बनकर खड़े हो जाते हैं, साथ चलने लगते हैं, यही उनका भजना है। दूषित जिनमे पैदा होते हैं, उनका विनाश के लिये वे खड़े जो जाते हैं। सत्य में प्रवेश दिलानेवाले सद्गुणों का परित्राण करने के लिये वे खड़े हो जाते हैं। जब तक इष्टदेव हृदय से पूर्णतः रथी न हों और हर कदम पर सावधान न करें, तब तक कोई कैसा ही भजनानन्दी क्यों न हो, लाख आँख मूँदे, लाख प्रयत्न करे, वह इस प्रकृति के द्वन्द्व से पार नहीं हो सकता।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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