विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्थ अध्याय
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। पार्थ! जो मुझे जितनी लगन से जैसा भजते हैं, मैं भी उनको वैसा ही भजता हूँ। उतनी ही मात्रा में सहयोग देता हूँ। साधक की श्रद्धा ही कृपा बनकर उसे मिलती है। इस रहस्य को जनकर सुधीजन सम्पूर्ण भावों से मेरे मार्ग के अनुसार ही बरतते हैं। जैसा मैं बरतता हूँ, जो मुझे प्रिय है वैसा ही आचरण करते हैं। जो मैं कराना चाहता हूँ, वही करते हैं। भगवान कैसे भजते हैं? वे रथी बनकर खड़े हो जाते हैं, साथ चलने लगते हैं, यही उनका भजना है। दूषित जिनमे पैदा होते हैं, उनका विनाश के लिये वे खड़े जो जाते हैं। सत्य में प्रवेश दिलानेवाले सद्गुणों का परित्राण करने के लिये वे खड़े हो जाते हैं। जब तक इष्टदेव हृदय से पूर्णतः रथी न हों और हर कदम पर सावधान न करें, तब तक कोई कैसा ही भजनानन्दी क्यों न हो, लाख आँख मूँदे, लाख प्रयत्न करे, वह इस प्रकृति के द्वन्द्व से पार नहीं हो सकता। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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