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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
चतुर्थ अध्याय
श्रीकृष्ण ने कहा कि मेरा जन्म दिव्य है, इसे देखने वाला मुझे प्राप्त होता है, तो लोगों ने उनकी मूर्ति बना ली, पूजा करने लगे। आकाश में कहीं उनके निवास की कल्पना कर ली। ऐसा कुछ नहीं है। उन महापुरुष का आशय केवल इतना है कि यदि आप निर्धारित कर्म करें तो पायेंगे कि आप भी दिव्य हैं। आप हो हो सकते हैं, वह मैं हो गया हूँ। मैं आपकी सम्भावना हूँ, आपका ही भविष्य हूँ। अपने भीतर आप जिस दिन ऐसी पूर्णता पा लेंगे तो आप भी वही होंगे जो श्रीकृष्ण हैं। जो श्रीकृष्ण का स्वरूप है, वही आपका भी हो सकता है। अवतार कहीं बाहर नहीं होता। हाँ, यदि अनुरागपूरित हृदय हो तो आपके भीतर भी अवतार की अनुभूति सम्भव है। वे आपको प्रोत्साहित करते हैं कि बहुत से लोग इस मार्ग पर चलकर मेरे स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं-
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