विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्थ अध्याय
अध्याय 2 में सत्-असत् का निर्णय देते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया- अर्जुन! असत् वस्तु का अस्तित्व नहीं है और सत् का तीनों कालों में कभी अभाव नहीं है। तो क्या ऐसा कहते हैं? उन्होंने बताया-“नहीं, तत्त्वदर्शियों ने इसे देखा।” न किसी भाषाविद् ने देखा, न किसी समृद्धिशाली ने देखा। यहाँ पुनः बद देते हैं कि मेरा आविर्भाव तो होता है लेकिन उसे तत्त्वदर्शी ही देख पाता है। तत्त्वदर्शी एक प्रश्न है। ऐसा कुछ नहीं कि पाँच तत्त्व हैं, पचीस तत्त्व हैं-इनकी गणना सीख ली और हो गये तत्त्वदर्शी। श्रीकृष्ण ने आगे बताया कि आत्मा ही परमतत्त्व है। आत्मा परम से संयुक्त होकर परमात्मा हो जाता है। आत्मसाक्षात्कार करनेवाला ही इस आविर्भाव को समझ पाता है। सिद्ध है कि अवतार किसी विरही अनुरागी के हृदय में होता है। आरम्भ में उसे वह समझ नहीं पाता कि हमें कौन संकेत देता है? कौन मार्गदर्शन करता है? किन्तु परमतत्त्व परमात्मा के दर्शन के साथ ही वह देख पाता है, समझ पाता है और फिर शरीर को त्यागकर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता।
|
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज