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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
महाभारत-युद्ध के नियम, भीष्म की प्रतिज्ञा रखने के लिये भगवान् ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दीउन्होंने अर्जुन को उस दिन की बात याद दिलायी। अर्जुन तो उसे भूल ही गये थे। श्रीकृष्ण ने कहा कि 'चलो अर्जुन! हम दोनों चलें दुर्योधन के पास। अब उस दिन की घटना से लाभ उठाना ही होगा।' अर्जुन बड़े संकोच में पड़ गये। वे इस प्रकार अपने उपकार का बदला नहीं लेना चाहते थे, परंतु एक तो पाँचों भाइयों के जीवन-मरण का प्रश्न, दूसरे श्रीकृष्ण की आज्ञा, वे उनकी बात टाल न सके। श्रीकृष्ण के साथ दुर्योधन के शिविर में गये। 'रात्रि का समय था। दिरभर के थके हुए योद्धा सो रहे थे। संतरी पहरा दे रहे थे, परंतु अर्जुन को सब पहचानते थे। किसी ने रोका नहीं, वे दुर्योधन के पास पहुँच गये। दुर्योधन ने अपने परम प्रेमी मित्र की भाँति दोनों का सत्कार किया और पूछा कि 'कहिये इस समय आने का क्या प्रयोजन है?' अर्जुन ने चित्रसेन से छुड़ाने वाले दिन की घटना याद दिलायी और पूछा कि 'क्या आपको अपनी बात याद है?' दुर्योधन ने कहा- 'भाई! जब तक इस शरीर में प्राण है, तब तक मैं तुम्हारा वह उपकार नहीं भूल सकता। तुम क्या चाहते हो? कहो तो अभी युद्ध बंद कर दूँ [तुम्हें राज्यसिंहासन पर बैठा दूँ], जो तुम कहो वही करूँ।' अर्जुन ने कहा-'भैया! युद्ध तो अब हो ही रहा है, उसे अब बंद क्या करना है। राज्य भी हम अपने बल-पौरुष से ही लेना चाहते हैं, किसी का दिया हुआ दान ले नहीं सकते। हाँ, हम एक विशेष प्रयोजन से यहाँ आये हैं। आप एक घंटे के लिये अपना राजमुकुट दे दें, फिर मैं वापस दे जाऊँगा।' दुर्योधन ने तुरंत अपना राजमुकुट अर्जुन को दे दिया। अब भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आगे किया और स्वयं पीछे हुए। दोनों ही भीष्म पितामह के शिविर में आये। उस समय पितामह बैठे हुए भगवान् का भजन कर रहे थे। अर्जुन ने आकर प्रणाम किया। उन्होंने अधखुली आँखों से मुकुट देखकर सोचा कि प्रतिदिन की भाँति दुर्योधन ही आया होगा, आशीर्वाद दिया और अर्जुन के माँगने पर पाँचों बाण भी दे दिये। जब अर्जुन बाण लेकर बाहर निकल आये तब श्रीकृष्ण भीष्म के सामने गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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