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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
महाभारत-युद्ध के नियम, भीष्म की प्रतिज्ञा रखने के लिये भगवान् ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दीक्या ऊँची सभ्यता का यही नमूना है? एक वह समय था, एक वह सभ्यता थी, जिसमें दिनभर अपने हक के लिये युद्ध करने के पश्चात् शाम को दोनों दल के वीर आपस में गले लगते थे। गले लगने की तो बात ही क्या: माँगने पर सर्वस्व देने को तैयार रहते थे। गले लगने की तो बात ही क्या: माँगने पर सर्वस्व देने को तैयार रहते थे। पता नहीं यह कथा कहाँ की है, परंतु मैंने सुनी है और बड़ी ही अच्छी कथा है। जब दुर्योधन पाण्डवों का अनिष्ट करने के लिये काम्यक वन में जा रहा था और चाहता था कि किसी प्रकार पाण्डवों को नष्ट कर दूँ, उस समय अर्जुन के मित्र गन्धर्वराज चित्रसेन ने कौरवों को मार भगाया। दुर्योधन को वह पकड़ ले गया। जब यह बात महाराज युधिष्ठिर को मालूम हुई, तब उन्होंने यह कहकर कि आपस में विरोध होने पर तो हम पाँच हैं और वे सौ हैं: परंतु दूसरे के साथ विरोध हो तो हम सब मिलकर एक सौ पाँच हैं, अर्जुन को भेजा और अर्जुन के सीधे कहने पर जब गन्धर्वों ने दुर्योधन को नहीं छोड़ा, तब अर्जुन ने युद्ध करके दुर्योधन को छुड़ाया। उस समय अर्जुन के उपकार से कृतज्ञ होकर दुर्योधन ने कहा-'भाई! तुम्हारी जो इच्छा हो माँग लो।' कहो तो सारा राज्य दे दूँ, कहो तो नया नगर बसा दूँ और कहो तो अपने प्राण दे दूँ।' अर्जुन ने कुछ भी लेना स्वीकार नहीं किया, इस पर दुर्योधन उदास हो गया। दुर्योधन को दु:खी देखकर अर्जुन ने कहा-'अच्छा, अभी आप मेरी चीज सुरक्षित रखिये, जब आवश्यकता होगी माँग लूँगा।' दुर्योधन प्रसन्न हो गया। भारतीय महायुद्ध में भीष्म ने दुर्योधन के बहुत आग्रह पर एक दिन यह प्रतिज्ञा की थी कि 'इन पाँच बाणों से मैं पाँचों पाण्डवों को मार डालूँगा।' जब यह समाचार पाण्डवों के शिविर में पहुँचा, तब धर्मराज युधिष्ठिर बहुत ही चिन्तित हुए। पाण्डवों पर जब कोई विपत्ति आती, आपत्ति आती, तब उनके लिये एक ही सहारा था, वह था भगवान् श्रीकृष्ण का सहारा। याद करते ही वे उपस्थित हो गये। भीष्म की प्रतिज्ञा की बात सुनकर वे मुस्कुराये, मानो उनके लिये यह एक मामूली-सी बात थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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