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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
पाण्डवों के उत्कर्ष से दुर्योधन को जलन, पाण्डवों के साथ दुर्व्यवहार और भीष्म का उपदेशमनुष्य की प्रकृति बहु विलक्षण है। अनादिकाल से संसार के थपेड़े खाते रहने पर भी यह होश नहीं संभालता। न जाने किस बुरे क्षण में इसे अपने स्वरुप की विस्मृति हुई थी कि यह अपने को भूलकर झूठमूठ अपने से भिन्न पदार्थों को देखने लगा। यदि यह बात यहीं तक सीमित होती तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं होती, परंतु इसकी परम्परा बढ़ती ही गयी। अपने को ही अपने से भिन्न देखा और उस भिन्न प्रतीत होने वाली वस्तु में 'यह अच्छा है, यह बुरा है, यह अपना है, यह पराया है'- इस प्रकार की कल्पना हुई। फिर अच्छे के लिये, अपनी रक्षा के लिये चेष्टा होने लगी और बुरे को हटाने के लिये, पराये के नाश के लिये विकलता का अनुभव होने लगा। जीव की इस आरम्भिक प्रवृत्ति ने समस्त योनियों में ऐसे ही भाव भर दिये और मनुष्य-योनि में जहाँ विशेष बुद्धि है और जहाँ इसे नहीं रहना चाहिये वहाँ तो इसे विशेष रुप में प्रकट कर दिया। बस, अब जितनी चेष्टाएँ होती हैं, इसी मूल वासना के आधार पर होती हैं और मनुष्य राग-द्धेष का पुतला बन गया है। भगवान् की बड़ी कृपा से, संतों के महान अनुग्रह से और शुद्ध अन्त:करण से विवेक करने पर तब कहीं ये राग-द्धेष के संस्कार समूल नष्ट होते हैं, तब मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता, महात्मा हो जाता है, आत्मा या परमात्मा हो जाता है, परंतु साधारण पुरुष इन्हीं दोनों भावों से प्रभावित हैं और उनकी प्रवृत्तियाँ इन्हीं के दद्वारा संचालित हो रही हैं। जिनमें राग-द्धेष की प्रवृत्तियाँ बहुत अधिक हैं, वे आसुरी सम्पत्ति के पुरुष हैं और जिनमें वे बहुत कम हैं वे देवी सम्पत्ति के पुरुष हैं। इन दोनों में परस्पर संघर्ष भी होता है और अन्त में दैवी सम्पत्ति वालों की जीत होती है। हम अगले अध्यायों में देखेंगे कि पाण्डवों में दैवी सम्पत्ति का कितना विकास हुआ है और कौरवों में कितना। राग-द्धेष् के संस्कारों से किसका अन्त:करण कितना प्रभावित है। जो इनसे ऊपर उठे हुए हैं वे तो महात्मा हैं ही- यहाँ उनके अंदर रहने वालों के तारतम्य का कुछ दिग्दर्शन मात्र होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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