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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
कौरव-पाण्डवों का जन्म तथा विद्याध्यनपाण्डु और विदुर की उत्पत्ति से देश का बड़ा मंगल हुआ। पृथ्वी में असीम अन्न पैदा होने लगा। उनमें सरसता और शक्ति विशेष रुप से आ गयी, वर्षा ठीक समय से होने लगी। वृक्ष फल-फूल से लद गये, पशु-पक्षी प्रसन्नतापूर्वक विचरने लगे। फूलों में अपूर्व सुगन्ध और फलों में अनोखा स्वाद आ गया। चारों ओर कलाकार, विद्धान् और सदाचारियों की वृद्ध होने लगी। चोर-डाकुओं का भय मिट गया। किसी के मन में भी पाप नहीं आता था। सर्वत्र यज्ञ-यागादि पुण्यकर्म होते रहते थे। अभिमान, क्रोध और लोभ कम हो गया था। सब लोग त्याग करके दूसरों को संतुष्ट रखते थे। वहाँ कोई कंजूस या विधवा स्त्री नहीं थी। सबका घर अतिथियों के लिये खुला रहता था। भीष्म ने बचपन से ही उनकी शिक्षा-दीक्षा का बड़ा ध्यान रखा था। वे जवान होते-होते सब शस्त्रों में पारंगत हो गये। विशेष करके पाण्डु धनुष युद्ध में बड़े निपुण थे, धृतराष्ट्र शरीर बल में और विदुर धर्मनीति में। वयस्क होने पर भीष्म ने पाण्डु को ही राजसिंहासन पर अभिषिक्त किया। धृतराष्ट्र अंधे थे और विदुर दासीपुत्र थे, इसलिये धर्मत: वे राज्य के अधिकारी नहीं माने गये। भीष्म ने तीनों की सम्मति लेकर उनका विवाह कर दिया। धृतराष्ट्र का विवाह गान्धारी से हुआ, पाण्डु का विवाह मद्रराज की कन्या शल्य की बहिन माद्री से और श्रीकृष्ण की बुआ कुन्ती से हुआ। यदुवंशियों की एक सर्वगुण-सम्पन्न दासी कन्या के साथ विदुर का विवाह हुआ। तीनों ही सुखपूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करने लगे और भीष्म उनकी ओर दृष्टि रखते हुए शान्तभाव से रहने लगे। समय पर धृतराष्ट्र के सौ पुत्र हुए। वे एक-से-एक बढ़कर वीर थे। भला ऐसा कौन भारतीय होगा जिसने दुर्योधन और दु:शासन का नाम न सुना हो। महाराज पाण्डु के वीर्य से कोई संतान नहीं हुई। उनका स्वभाव बड़ा विचित्र था। इन्हें शिकार खेलने में बड़ा मजा आता। ये प्राय: पर्वतों में ही रहते, परंतु यह व्यसन वास्तव में बड़ा बुरा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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