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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
चित्रांगद और विचित्रवीर्य का जन्म, राज्य भोग, मृत्यु और सत्यवती का शोकजीव के संकल्पों का अन्त नहीं है। वह क्षण-क्षण संकल्प करता रहता है। यदि सच कहें तो क्षणों का संकल्प भी वही करता है। वह संकल्प क्यों करता है? इसलिये कि उसे ऐसा मालूम पड़ता है कि मुझे कोई स्थिति प्राप्त नहीं है, मुझे कोई वस्तु प्राप्त नहीं है। वह स्थिति प्राप्त हो जाय, वह वस्तु मुझे प्राप्त हो जाय, उसके मैं अपने बल से, पौरुष से, इस युक्ति से, इस उपाय से यों प्राप्त कर लुँगा। यह सुख प्राप्त करुँगा, यह उत्तम भोग प्राप्त करुँगा- इत्यादि अनेकों प्रकार की कल्पनाएँ होती रहती हैं। बस, इन्हीं कल्पनाओं में अथवा इन कल्पनाओं की पूर्ति में जीव का जाग्रत्कालीन और स्पप्नकालीन जीवन व्यतीत होता है। यदि अपनी कल्पनाओं के अनुरुप स्थिति या वस्तु प्राप्त हो गयी, तब तो वह सफलता की प्रसन्नता से फूल उठता है और यदि मनोवांछित वस्तु न मिली, अपनी कल्पना के अनुरुप स्थिति प्राप्त न हुई तो सिर पीट-पीटकर रोने लगता है। यही सारे जगत् की दशा है, अपने स्वरुप को-भगवान् को भूलकर अपने अहंकार के कारण यह स्थिति स्वयं अपने-आप ही पैदा की गयी है। भोले जीवों! क्या तुम अपनी कल्पना के अनुसार सृष्टि को बनाना-बिगाड़ना चाहते हो? क्या तुम्हारी ऐसी धारणा है कि हम सब अलग-अलग अपनी धारणा के अनुरुप सृष्टि का निर्माण कर लेंगे? क्या तुम्हें विश्वास है कि इस प्रकार संसार का संचालन सुव्यवस्थित रुप से हो सकेगा? इस सारी सृष्टि का व्यवस्थापक एक है, सारे जगत् के अणु-अणु और परमाणु-परमाणु की गतिविधि का निरीक्षण हो रहा है। कौन-सा कण कब किस प्रकार दूसरे कण से मिले- इसका नियम है। कौन-सा व्यक्ति किस स्थान पर बैठकर, किस पात्र में अन्न के कौन-से दाने किस प्रकार खायेगा, यह समय, स्थान, अन्न, व्यक्ति और पात्र के भाग्य सूत्र जोड़कर निश्चित किया जा चुका है। एक-एक अणु जीव हैं, उनका प्रारब्ध है। वे भी किसी की इच्छा से उनका भोग कर रहे हैं। कोई भी उन्हें अन्यथा नहीं कर सकता। फिर निश्चित बातों में उलझन की कल्पना करके उन्हें सुलझाने के लिये क्यों अपने जीवन का अमूल्य समय नष्ट करते हो! क्यों नहीं भगवान् के भजन में, स्वरुपाकारवृत्ति में स्थित रहते? यह परिवर्तन तो होने वाला ही है, अज्ञानी इसमें दु:खी होंगे, सुखी होंगे, रोयेंगे-हँसेंगे और जो इस तत्व को जानते हैं, वे हँसने-रोने के निमित्त सामने आने पर न हँसते हैं, न रोते हैं, समभाव से स्थिर रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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