विषय सूची
श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
पिता के लिये महान् त्यागभीष्म के इस दुष्कर कर्म को देख-सुनकर शान्तनु बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया। उन्होंने कहा-' भीष्म! जब तक तुम्हारे मन में जीने की इच्छा रहेगी, तब तक मृत्यु तुम्हारे शरीर का स्पर्श नहीं कर सकेगी। जब तुम उसे आज्ञा दोगे, जब वह तुम्हारी अनुमति प्राप्त कर लेगी, तभी तुम्हारे शरीर पर वह अपना प्रभाव डाल सकेगी। भीष्म! वास्तव में तुम निष्पाप हो। मैं तुम्हें यह वर नहीं दे रहा हूँ, यह तो तुम्हारी शुद्ध हृदयता का छोटा-सा फल है।' शान्तनु ने रुप-यौवन से सम्पन्न उस सुन्दरी सत्यवती को अपने रनिवास में रख लिया। ज्योतिषियों से पूछकर शुभ मुहूर्त में विवाह किया और दोनों ही सुखपूर्वक रहने लगे। भीष्म सब शास्त्रों के गम्भीर विद्धान थे। उन्होंने उनका अध्ययन-आलोडन करके यह निश्चय कर लिया था कि जगत् में कुछ सार नहीं है। यदि इस जीवन का कुछ फल है तो वह है भगवान् का भजन। वे शान्तनु के विवाह के पहले भी भगवान् की आज्ञा और अपना कर्तव्य समझकर ही राज-काज में भाग लेते थे, अब तो और भी अच्छा संयोग बन गया। उनके मन में यदि पहले तनिक भी अपनेपन का संस्कार रहा होगा तो वह सर्वथा नष्ट हो गया। उनके मन में कम-से-कम कामिनी और कंचन के संसार तो नहीं रहे। वे अब भी पूर्ववत् प्रजा पालन का काम बड़े मनोयोग से करते, हर तरह से पिता को प्रसन्न करने की चेष्टा करते और निरन्तर भगवान् का स्मरण रखते। इस प्रकार बहुत दिन बीत गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज