विषय सूची
श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
चित्रांगद और विचित्रवीर्य का जन्म, राज्य भोग, मृत्यु और सत्यवती का शोकशान्तनु के मन में था कि अब तक मेरे एक ही पुत्र है, मैं और विवाह करूँ, बहुत-से पुत्र उत्पन्न करूँ। सब 'भीष्म के समान बलिष्ठ होंगे, सब दीर्घजीवी होंगे, उन्हें युवावस्था में आनन्द-उपभोग करते एवं अपनी सेवा करते देख्-देखकर मैं प्रसन्न होऊँगा; परंतु उनकी यह कल्पना झूठी थी। उन्होंने अपनी ओर संकल्प किया, चेष्टा की, विवाह होने वाला था, बच्चे होने वाले थे। विवाह हो गया, बच्चे भी हो गये। यह सब तो हुआ, परंतु समय वह आ गया, जिसका नाम सुनकर, जिसकी कल्पना करके अज्ञानी प्राणी घबरा उठते हैं। महाराज शान्तनु के मृत्यु का समय आ गया और वे इतना बड़ा साम्राज्य, इतने सुन्दर-सुन्दर और बलिष्ठ पुत्र छोड़कर चले बसे। इनकी तो बात ही क्या- वे उस स्त्री को छोड़कर सर्वदा के लिये सो गये, जिसकी रुप माधुरी पर मोहित होकर उन्होंने अपने अत्यन्त प्रिय और ज्येष्ठ पुत्र को विशाल साम्राज्य से एवं संसार के उसी सुख् से, जिसके लिये स्वयं लालायित थे, वंचित किया था। उनके दो पुत्र और थे- चित्रांगद और विचित्रवीर्य। शान्तनु की मृत्यु हो जाने के पश्चात् सत्यवती की आज्ञा से भीष्म ने चित्रांगद को राजसिंहासन पर बैठाया। चित्रांगद सम्राट के पुत्र थे, बली थे, युवक थे और थे उत्साही। उन्हें अपनी भुजाओं पर बड़ा अभिमान था। उन्होंने पृथ्वी के सब राजाओं को हरा दिया। उनकी आँखों के सामने अपने समान कोई दीखता ही नहीं था। वे सबको तुच्छ समझते थे। भला, यह भी कोई बात है, सब-के-सब परमात्मा की संतान हैं, परमात्मा की शक्ति से जीवित हैं। सबमें परमात्मा हैं और सब रुपों के रुप में परमात्मा ही प्रकट हो रहे हैं। वास्तव में सब कुछ परमात्मा ही हैं। परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। तब कौन किसको तुच्छ समझे? यह घोर अन्धकार है, परमात्मा का ही तिरस्कार है। परंतु विजयगर्वित चित्रांगद को यह क्यों सूझने लगा! वह ऐंठकर चलता, इतराकर बात करता और सीधी नजर से किसी को नहीं देखता। देवता, दैत्य, मनुष्य-सब उससे हार गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज