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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
महाभारत का दिव्य उपदेशलोभ में ही पाप रहता है, लोभी का संग त्यागकर
'हे धर्मराज! मैं तुझे पाप के रहने का स्थान बतलाता हूँ तू मन लगाकर सुन! लोभ एक बड़ा भारी ग्राह है, इसी से पाप की उत्पत्ति होती है। पाप, अधर्म, सबसे बड़े दु:ख और कपट की जड़ लोभ ही है। लोभ से ही मनुष्य पाप करते हैं। काम, क्रोध, मोह, माया, मान, पराधीनता, क्षमाहीनता, निर्लज्जता, दरिद्रता, चिंता और अपयश आदि लोभ से ही उत्पन्न होते हैं। भोगों में आसक्ति, अतितृष्णा, बुरे कर्म करने की इच्छा, कुल-विद्या-रुप-धन का मद, समस्त प्राणियों से बैर, सबका तिरस्कार, सबका अविश्वास, सबके साथ टेढ़ापन, परधन-हरण, परस्त्री-गमन, वाणी से चाहे से बक उठना, मन में चाहे सो सोचना, किसी की भी निन्दा करने लगना, काम के वश में हो जाना, पेट-परायण होना, बिना मौत मरना, ईर्ष्या (डाह) करना, झूठ बोलने को मजबूर होना, जीभ के स्वाद के वश में होना, बुरी बातें सुनने की इच्छा करना, परनिन्दा करना, अपनी बड़ाई मारना, मत्सरता, द्रोह, कुकार्य, सब तरह के साहस और न करने योग्य काम भी कर बैठना आदि अनेक दुर्गुणों की लोभ से ही उत्पत्ति होती है। जन्म से लेकर बुढ़ापे तक किसी भी अवस्था में लोभ का त्याग करना कठिन है। मनुष्य बूढ़ा हो जाता है, परन्तु यह लोभ बूढ़ा नहीं होता। गहरे जल से भरी हुई नदियों का जल समुद्र में मिल जाता है, परन्तु जैसे उस जल से समुद्र तृप्त नहीं होता, इसी प्रकार चाहे जितना धन प्राप्त हो जाने पर भी लोभी तृप्त नहीं हो सकता। लोभी मनुष्य की कामना कभी पूरी होती ही नहीं। लोभ के स्वरुप को देव-दानव, मनुष्य और कोर्इ् भी प्राणी ठीक-ठीक नहीं जानते। मनस्वी पुरुष को उचित है कि वह ऐसे लोभ को पूर्णरुप से जीत लें। मन को वश में न रखने वाले लोभी मनुष्यों में द्रोह, निन्दा, हठीलापन और मत्सरता आदि दुर्गुण अधिकता से देखने में आते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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