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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
महाभारत का दिव्य उपदेशअनेक शास्त्रों को जानने वाले दूसरों की शंका-समाधान करने वाले बहुश्रुत पण्डित भी लोभ के वशीभूत होकर संसार में कष्ट ही पाते हैं। लोभी मनुष्य सदैव द्वेष और क्रोध में डूबे हुए होते हैं। श्रेष्ठ पुरुषों के शिष्टाचार से वे सर्वथा भ्रष्ट हो जाते हैं। उनके हृदय में क्रूरता और वाणी में मिठास भरा रहता है। भोले-भाले लोग घास से ढके हुए कुंए की तरह प्राय: उनसे धोखा खा जाते हैं। वे धर्म का वेश बनाकर दूसरों के मन को दु:खाने वाले, धर्म का ढोंग रचने वाले अनुदार और विश्वासघातक होते हैं। वे युक्तियों के बल से (शास्त्र-वचनों का मनमाना अर्थ करके) अनेकों मार्ग खड़े करके लोभ के वशीभूत होकर सत्पुरुषों द्वारा स्थापित धर्म मार्ग का नाश कर देते हैं। उनके स्वार्थ के कारण संसार की व्यवस्था में उलट-फेर मच जाता है और लोग भी उनकी देखा-देखी अधर्माचरण करने लगते हैं। हे युधिष्ठिर! दर्प, क्रोध, मद, हर्ष, शोक, अति अभिमान- ये सब दुर्गुण लोभी मनुष्य में देखने में आते हैं। ऐसे पुरुषों को सदैव कुटिल जानकर उनसे बचना चाहिये। केवल सत्पुरुषों के सेवन से ही भलाई हो सकती है।' 'हे राजन! सत्पुरुषों का बर्ताव बड़ा ही अनुकरणीय होता है। उनके पास रहकर तुम्हें अपने सन्देह की निवृत्ति करनी चाहिये। उनके सत्संग से पुनर्जन्म अथवा परलोक का भय नहीं रहता।। वे मांस, मदिरा, से सदा दूर रहने वाले सज्जन प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में (निरन्तर) समान होते हैं। वे श्रेष्ठ पुरुषों की सराहना करने वाले, जितेन्द्रिय और सुख्-दु:ख को समान समझने वाले महानुभाव नित्य सत्य के पालन में ही तत्पर रहते हैं। वे दान देकर अथवा किसी की भलाई करके प्रत्युपकार की इच्छा नहीं रखते। वे दयालु, संत, पितर, देवता और अतिथियों का सत्कार करने वाले होते हैं। विपद्काल में भी धर्म को न छोड़ने वाले वे सज्जन सब प्राणियों के हित-साधन में ही लगे रहते हैं और माँगने पर परोपकार के लिये अपने प्राणों तक की भेंट प्रसन्नतापूर्वक कर देते हैं। ऐसे शिष्ट पुरुषों को संसार का कोई भी पदार्थ या प्राणी सत्पथ से चलायमान नहीं कर सकता। उनका चरित्र आदर्श धर्मभाव से भरा होता है और वे साधु पुरुषों के द्वारा आचरित धर्म का कभी लोप नहीं करते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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