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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
महाभारत का दिव्य उपदेशउनके किसी को उद्वेग नहीं होता, क्योंकि उनका लक्ष्य सदैव सब प्राणियों से नि:स्वार्थ और निष्कपट प्रेम करने का रहता है। ऐसे स्थिरबुद्धि, अहिंसक सत्पुरुषों के संग का सभी को लाभ उठाना चाहिये। वे काम, क्रोध, ममता और अहंकार से सर्वथा शून्य होते हैं। इस प्रकार के मर्यादापालक संतों से ही अपनी शंकाओं का समाधान कराना चाहिये। वे धन या यश के लिये धर्म का आचरण या सदाचार का पालन नहीं करते हैं, किन्तु जैसे शरीर रक्षा के लिये भोजन आदि क्रिया आवश्यक है, ऐसे ही धर्मानुष्ठान भी कर्तव्य समझकर अवश्य करना चाहिये इसी भाव से वे धर्माचरण करते हैं। उन सदा सन्तुष्ट रहने वाले साधुओं में भय, क्रोध, मन की चपलता या शोक सर्वथा नहीं होता है। वे दूसरों को धोखा देने के लिये धर्म का स्वांग धारण नहीं करते हैं। उनका किसी अंश में भी कोई प्रयोजन- छिपा हुआ स्वाथ न होने से वे पाखण्डी- धर्म का आश्रय नहीं लेते हैं। वे लोभ या मोह से किसी भी निर्णय में भूल नहीं करते, क्योंकि वे सदैव पक्षपातरहित धर्मशील, सत्यवादी और साफ कहने वाले होते हैं। ऐसे सत्पुरुषों के साथ तुम्हें अवश्य प्रेम करना चाहिये। वे लाभ होने से हर्ष नहीं मानते और हानि होने से खेद नहीं करते। वे ममता और अहंकार से शून्य रहकर सदा सत्वगुण में स्थित रहते हैं। उनकी सर्वत्र समदृष्टि हो जाने से वे सुख-दु:ख, प्रिय-अप्रिय अथवा जीवन-मरण इन सबको समान समझते हैं। वे दृढ़ पुरुषार्थी, नित्य धर्म के मार्ग में ही स्थित रहते हैं। ऐसे महानुभाव पुरुषों की तुम्हें जितेन्द्रिय और सावधान होकर सेवा करनी चाहिये।' शान्तिपर्व, अध्याय 158 |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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