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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
पितामह का उपदेशसब प्राणियों का शरीर पंचमहाभूतों से उत्पन्न हुआ है। सृष्टिकर्ता परमात्मा ने ही पंचभूतों को प्राणियों के शरीर में स्थापित कर दिया है। शब्द,श्रोत्र और सम्पूर्ण छिद्र आकाश के गुण हैं। स्पर्श, चेष्टा और त्वचा- ये तीन वायु के गुण हैं। तेज के भी तीन गुण हैं- रुप, नेत्र और परिपाक। जल के रस, क्लेद और जिह्या। पृथ्वी के गन्ध, नासिका और शरीर। इन पंचमहाभूतों की सूक्ष्म तन्मात्रा से ही अन्त:करण बना हुआ है। इन्हीं के द्वारा जीवात्मा को विषयों का ज्ञान होता है, इन्द्रियाँ विषयों को ग्रहण करती हैं, मन संकल्प और विकल्प करता है, बुद्धि ठीक-ठाक निर्णय करती है और जीवात्मा साक्षी के समान रहकर सब देखा करता है। विशुद्ध बुद्धि से जगत् की उत्पत्ति और प्रलय का ज्ञान हो जाने पर शान्ति मिल जाती है। सत्व, रज और तम- ये तीनों गुण बुद्धि को अपने वश में रखते हैं, बुद्धि मन और इन्द्रियों को वश में रखती है। बुद्धि न हो तो कोई काम नहीं हो सकता है। रजोगुण से युक्त बुद्धि विषयों का ज्ञान कराती है। सत्वगुण से युक्त बुद्धि परमात्मा का ज्ञान कराती है। तमोगुण से युक्त बुद्धि मोह उत्पन्न करती है। सत्वगुण से शान्ति और संयम, रजोगुण से काम और क्रोध तथा तमोगुण से भय और विषाद होते हैं। सत्वगुण से सुख, रजोगुण से दु:ख और तमोगुण से मोह होता है। सत्वगुण से हर्ष, प्रेम, आनन्द और शान्ति के भाव उत्पन्न होते हैं। रजोगुण से असंतोष, संताप, शोक, लोभ, असहिष्णुता और तमोगुण से अपमान, मोह, प्रमाद, स्वप्न और आलस्य होते हैं। शास्त्रीय क्रियाओं और अपने कर्तव्य-पालन का यह अर्थ है कि तमोगुण और रजोगुण को दबाकर सत्वगुण की प्रधानता स्थापित की जाये। विभिन्न प्रकार की शारीरिक और मानसिक साधनाओं का यही लक्ष्य है। धर्म की विभिन्न व्याख्या और विभिन्न रुप केवल इसीलिये हैं। यह तो हुआ बुद्धि का विस्तार, अब आत्मा की बात सुनो। बुद्धि से अहंकार आदि गुण उत्पन्न होते हैं, परंतु आत्मा इन सबसे अलग रहता है। जैसे गूलर का फूल और उसके अन्दर रहने वाले कीड़े एवं पानी और पानी के अन्दर रहने वाली मछली एक नहीं है, एक में रहने पर भी अलग-अलग हैं, वैसे ही बुद्धि और आत्मा एक साथ रहने पर भी अलग-अलग हैं। अहंकार आदि गुण आत्मा को नहीं जानते, परंतु आत्मा इन सबको जानता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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