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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
चतुर्थ अध्याययहाँ देखो; ब्रह्मज्ञानियों का प्रभाव! वे कहते हैं कि दूसरा कोई ज्ञानी ही नहीं है। श्रीउड़ियाबाबाजी महाराज तो कहते ते कि एक बार दस-बारह ज्ञानी इकट्ठे हुए तो मैंने उनसे कहा कि ज्ञानी तो आजतक कोई हुआ ही नहीं। बाबा, ज्ञानस्वरूप ब्रह्म तो मैं हूँ। उसमें ज्ञानी-अज्ञानी दोनों ही अध्यस्त हैं। न कोई सच्चा ज्ञानी हुआ और न सच्चा अज्ञानी हुआ। अरे, वह तो मैं ही हूँ, दूसरा कोई तो है ही नहीं। यह तो श्रद्धालु लोग ज्ञान-संप्रदाय के प्रवर्तन के लिए ज्ञानी को सिंहासन पर बैठाते हैं। आप अगर स्वयं ज्ञानी के सिंहासन पर बैठ जाओगे तो ज्ञानस्वरूप कहाँ से होओगे। इसलिए यहाँ भगवान् स्वयं अपने को ही बैठाते हैं सिंहासन पर। क्यों न हो! वे आद्याचार्य हैं। इसलिए बोले कि मैंने विवस्वान् को इस योग का उपदेश किया था। विवस्वान् माने क्या होता है? विवस्वान् सूर्य को कहते हैं। आप देखते हैं कि सूर्य दिन-रात चलते रहते हैं और सबको रोशनी देते रहते हैं। लेकिन क्या बदले में कुछ तनख्वाह, कोई कीमत वसूल करते हैं? नहीं; एकदम निष्काम भाव से अपना काम करते हैं सूर्य भगवान्। यदि आपको निष्काम कर्मयोग का कोई प्रत्यक्ष उदाहरण देखना हो तो सूर्य भगवान् को देखिये। प्रकाश स्वरूप होने से वे ज्ञान भी हैं। कुटिया-उटिया तो उनके पास है ही नहीं। परमहंस परिव्राज की भाँति दिन-रात चलते रहते हैं और सबको प्रकाश माने ज्ञान प्रदान करते हैं, जो सबको ज्ञान दे और ले किसी से कुछ नहीं! उससे बढ़कर कर्मयोगी और कौन हो सकता है? इसलिए कर्मयोग के सच्चे आदर्श सूर्य हैं। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण बोलते हैं कि मेरा सबसे पहला शिष्य सूर्य है। यह बात दूसरी है कि विवस्वान् सविता भी है। सविता माने होता है मायाविशिष्ट ब्रह्म। वही माया-विशिष्ट ब्रह्म सृष्टि का कर्ता है। लेकिन मैं माया-विशिष्ट नहीं हूँ, मैंने माया विशिष्ट को पहला चेला बनाया है। विविस्वान् के पुत्र हुए मनु। इस नाते जीवात्मा को भी ज्ञान का उपदेश मैंने ही दिया है। क्योंकि श्रद्धा और मनन दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए मनु, मनुष्य के आदि पुरुष हैं. हम लोग स्वायम्भुव मन्वन्तर में नहीं है। वैवस्वत मन्वन्तर में हैं। इसलिए मनु विविस्वान् के शिष्य हैं। मतलब यह है कि यदि मनुष्य को भी जीवन व्यतीत करना हो तो उसे सूर्य के समान अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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